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________________ युगवीर-निबन्धावली इन्द्रिय-विषयोंके परिहाररूप 'संयम', इच्छानिरोधरूप 'तप', दुष्टविकल्पोंके सत्याग अथवा माहारादिक देय-पदामिसे ममत्वके परिबर्जनरूप याग, बाह्य पदार्थों में मू के प्रभावरूप 'पाकिचिन्य', अब्रह्म अथवा मैथुनकर्मकी निवृतिरूप 'ब्रह्मचर्य' (ऐसे 'दशलक्षणधर्म), क्षधादि-वेदनाओंके उत्पन्न होने पर चित्तमे उद्वेग तथा प्रशान्तिको न होने देने रूप 'परिषहजय', रागद्वेषादि-विषमताप्रोकी निवृत्तिरूप 'सामायिक' और कर्म-ग्रहरणकी कारणीभूत-क्रियाप्रोसे विरक्तिरूप चारित्र', ये सब भी निवृत्तिरूप सेवाधर्मके ही अग हैं, जिनमेसे कुछ हिसा' और कुछ हिसेतर' क्रियाप्रोके निषेधको लिये हुए हैं। ' इस निवृत्ति-प्रधानसे वाधमके अनुष्ठानके लिए किसी भी कोडीसेकी पासमे जरूरत नहीं है । इसमे तो अपने मन-वचन-कायकी कितनी ही क्रियाओं तकको रोकना होता है - उनका भी व्यय नहीं किया जाता । हाँ, इस धर्म पर चलनेके लिये नीचे लिखा गुरुमत्र बडा ही उपयोगी है-अच्छा मार्गदर्शक है - ___ "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत् ।" 'जो जो बाते, क्रियाएँ, चेष्टाएँ तुम्हारे प्रतिकूल हैं-जिनके दूसरो-द्वारा किए हुए व्यवहारको तुम अपने लिये पसद नहीं करते, अहितकर और दुखदाई समझते हो-उनका आचरण तुम दूसरोंके प्रति मत करो।' यही पापोसे बचनेका गुरुमत्र है । इसमे सकेतरूपसे जो कुछ कहा गया है व्याख्या-द्वारा उसे बहुत कुछ विस्तृत तथा पल्लवित करके बतलाया जा सकता है। प्रवृत्तिरूप सेवाधर्ममे 'दया' प्रधान है। दूसरोके दुखो-कष्टोका अनुभव करके- उनसे द्रवीभूत होकर-उनके दूर करनेके लिए मनकचन-कायकी जो प्रवृत्ति है व्यापार है-उसका नाम 'दया है। अहिंसाधर्मका अनुष्ठाता जहाँ अपनी पोरसे किसीको दु ख-कष्ट नहीं पहुंचाता, वहा दयाधर्मका अनुष्ठाता दूसरों के द्वारा पहुंचाए
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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