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________________ युगवीर-निबन्धावली सचमुच ही 'मर्वोदयतीर्थ' के पदको प्राप्त है-इस पदके योग्य इसमें सारी ही योग्यताएँ मौजूद हैं-हर कोई भव्य जीव इसका सम्यक आश्रय लेकर मसारसमुद्रसे पार उतर सकता है। परन्तु यह समाजका और देशका दुर्भाग्य है जो आज हमने -जिनके हाथो दैवयोगमे यह तीर्थ पडा है-इस महान् तीर्थकी महिमा तथा उपयोगिताको भुला दिया है, इसे अपना घरेलू, क्षुद्र या असर्वोदयतीर्थका-सा रूप देकर इसके चारो तरफ ऊंची-ऊँची दीवारें खडी कर दी हैं और इसके फाटकमे ताला डाल दिया है । हम लोग न तो खुद ही इससे ठीक लाभ उठाते हैं और न दूसरोको लाभ उठाने देते हैं-मात्र अपने थोडेसे विनोद अथवा क्रीडाके स्थल रूपमे ही हमने इसे रख छोडा है और उसीका यह परिणाम है कि जिस 'सर्वोदयतीर्थ' पर दिन-रात उपासकोकी भीड और यात्रियोका मेलासा लगा रहना चाहिये था वहाँ आज मन्नाटासा छाया हुआ है, जैनियोकी सख्या भी अगुलियोपर गिनने लायक रह गई है और जो जैनी कहे जाते हैं उनमे भी जैनत्वका प्राय कोई स्पष्ट लक्षण दिखलाई नही पडता-कही भी दया, दम, त्याग और समाधिकी त परता नज़र नही आती--लोगोको महावीरके सन्देशकी ही खबर नही, और इसीसे ससारमे सर्वत्र दुख ही दु ख फैला हुआ है। ऐसी हालतमे अब खास जरूरत है कि इस तीर्थका उद्धार किया “जइ एव कुदो तत्थ सजमग्गहणसभवो त्ति गासकरिणज्ज । दिसाविजयपयट्टचक्कट्टिखधावारेण सह मज्झिमखडमागयारण मिलेच्छरायारण तत्थ चक्कवट्टियादीहि सह जादवेवाहियसबधारणसजमपडिवत्तीए विरोहाभावादो। अथवा तत्तत्कन्यकाना चक्रवादिपरिणीताना गर्भेषत्पन्ना मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इतीह विवक्षिता. ततो न किंचिद्विप्रतिषिद्ध । तथाजातीयकाना दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावादिति ।"
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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