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________________ २६३ जाति-पंचायतोंका दंड-विधाब आचार्यमहोदयने अपने इन वाक्यो-द्वारा जैन जातियो और जैन पंचायतोको जो गहरा परामर्श दिया है और जो दूरकी बात सुझाई है वह सभीके ध्यान देने और मनन करनेके योग्य है । जब जब इस प्रकारके सदुपदेशो और सत्परामर्शों पर ध्यान दिया गया है तब तब जैन समाजका उत्थान होकर उसकी हालत कुछसे कुछ होती रही है. इसमे अच्छे अच्छे राजा भी हुए, मुनि भी हुए और जैनियोने अपनी लौकिक तथा पारलौकिक उन्नतिमे यथेष्ट प्रगति की, साथ ही जैनधर्मका भी अच्छा अभ्युत्थान हुआ । परन्तु जबसे उन उपदेशो तथा परामर्शोंकी उपेक्षा की गई तभीसे जैनसमाजका पतन हो रहा है और आज उसकी इतनी पतितावस्था हो गई है कि उसके अभ्युदय और समृद्धिकी प्राय: सभी बाते स्वप्न-जैसी मालूम होती हैं, और यदि कुछ पुगतत्त्वज्ञो अथवा ऐतिहासिक विद्वानो-द्वारा थोडासा प्रकाश न डाला जाता तो उन पर एकाएक विश्वास भी होना कठिन था । ऐसी हालतमे. अब ज़रूरत है कि जैनियोकी प्रत्येक जातिमे ऐसे वीर पुरुष पैदा हों अथवा खडे हो जो बडे ही प्रेमके साथ युक्तिपूर्वक जातिके पचो तथा मुखियाप्रोको उनके कर्तव्यका ज्ञान कराएँ और उनकी समाज-हित-विरोधिनी निरकुश प्रवृत्तिको नियत्रित करनेके लिये जी-जानसे प्रयत्न करे। ऐसा होने पर ही समाजका पतन रुक सकेगा और उसमे फिरसे वही स्वास्थ्यप्रद, जीवनदाता और समृद्धिकारक पवन बह सकेगा जिसका बहना अब बन्द हो रहा है और उसके कारण समाजका सास घुट रहा है । आशा है समाजके सभी शुभचिन्तक अपने वर्तमान कत्र्तव्यको समझेगे और बडी दृढताके साथ उसके पालनमें दत्त चित होगे।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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