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________________ १८२ युगवीर-निबन्धावली स्मृतिके चिन्हस्वरूप अनेक प्रकारसे अपने उपकारीके प्रति अपना आदर सत्कार व्यक्त किया करते हैं, जैसा कि श्लोकवार्तिक्में, श्रीमद्विद्यानंदस्वामी द्वारा, परमात्माकी उपासनाके समर्थनमे, उद्धृत किये हुए निम्नलिखित एक प्राचीन पद्यसे प्रकट है - अभिमतफलसिद्धेरभ्युपाय सुबोध प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिरातात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादाप्रबुद्ध न हि कृतमुपकार साधवो विस्मरन्ति । इस पद्यमे यह बतलाया गया है कि, मनोवाछित फलकी सिद्धिका उपाय सम्यग्ज्ञान है, सम्यग्ज्ञानकी उपलब्धि शास्त्रके द्वारा होती है और शास्त्रकी उत्पत्ति प्राप्त भगवान्से है, इसलिये वे प्राप्तभगवान् (परमात्मा) जिनके प्रसादसे प्रबुद्धताकी प्राप्ति होकर अभिमत फलकी सिद्धि होती है, सतजनोके द्वारा पूज्य ठहरते हैं। सच है, साधुजन किसीके किये हुए उपकारको कभी भूलते नहीं हैं।' इससे जो लोग दूसरोके किये हुए उपकारको भुला देते हैं उन्हे असाधु तथा असज्जन समझना चाहिये । लोकमे भी उन्हे कृतघ्नी, अहसानफरामोश और गुणमेट आदि बुरे नामोंसे पुकारा जाता है । ऐसे लोग, जबतक उनकी यह दशा कायम रहती है, कभी उन्नति नही कर सकते और न आत्मलाभके सम्मुख हो सकते है। इसलिये अपने महोपकारी परमात्माके प्रति आदर-सत्कार रूपसे प्रवर्तित होना हमारा खास कर्तव्य है।। दूसरे, जब प्रात्माकी परम स्वच्छ और निर्मल अवस्थाका नाम ही परमात्मा है और उस अवस्थाको प्राप्त करना-अर्थात्, परमात्मा बनना-सब आत्मानोका अभीष्ट है, तब प्रात्मस्वरूपकी या दूसरे शब्दोंमें परमात्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना करना हमारा परम कर्तव्य है । परमात्माका ध्यान, परमास्माके अलौकिक चरित्रका विचार और परमात्माकी ध्यानावस्थाका
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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