________________
युगवीर-निबन्धावली नत्य-नित्यकी विधि-निषेधकी और मुख्य-गोरपणादिकी यह सारी व्यिवस्था सापेक्षा है- सापेक्षनयवादका विषय है। और इसलिये जो निरपेक्षनयवादका प्राश्रय लेती है और बस्तुतत्त्वका सर्वथा एकरूपसे प्रतिपादन करती है वह जैनी नीति अथवा सम्यक् नीति न होकर मिथ्या नीति है। उसके द्वारा वस्तुतत्त्वका सम्यग्ग्रहा और प्रतिपादन नहीं बन सकता। + , जेनी नीतिका ही दूसरा नाम 'अनेकान्ततीति' है और उसे 'स्यादादनीति' भी कहते है । यह नीति अपने स्वरूपसे ही सौम्य, उदार, शान्तिप्रिय, विरोधका मथन करनेवाली, वस्तुतत्त्वकी प्रकाशक और सिद्धिकी दाता है । खेद है जैनियोंने अपने इस आराध्य । देवता 'अनेकान्त' को बिल्कुल भुला दिया है और वे माज एकान्तके अनन्य उपासक बने हुए है ! उसीका परिणाम उनका मौजूदा सर्वतोमुखी पतन है, जिसने जनकी सारी विशेषतामो और गुण-गरिमानो पर पानी फेर कर उन्हें नगण्य बना दिया है । जैनियोको फिरसे अपने इस प्राराध्य देवताका स्मरण कराने हुए उनके जीवनमे इस सन्नीतिकी प्राणप्रतिष्ठा कराने और ससारको भी इस नीति का परिचय देने तथा इसकी उपयोगिता बतलानेके लिये ही 'अनेकान्त' नामसे पत्र निकाला गया है । लोकको इससे सत्प्रेरणा मिले और यह उसके हितसाधनमे महायक होवे ऐसी शुभ भावना है।