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________________ ४५० युगवीर-निबन्धावली दुःख उठाना होता है। १०. जब योग्य-साधनोके बल पर विभावपरिणति मिट जाती है, आत्मामें कममलका सम्बन्ध नहीं रहता और उसका निज-स्वभाव पूर्णतया विकसित हो जाता है तब वह जीवात्मा ससार-परिभ्रमरणसे छूटकर मुक्तिको प्राप्त होता है और मुक्त, सिद्ध अथवा परमात्मा कहलाता है। ५१ अात्माकी पूर्णविकसित एव परम-विशुद्ध अवस्थाके अतिरिक्त परमात्मा या ईश्वर नामकी कोई जुदी वस्तु नहीं है। १२. परमात्माकी दो अवस्थाएं हैं, एक जीवन्मुक्त और दूसरी विदेहमुक्त। १३ जीवन्मुक्तावस्थामे शरीरका सम्बन्ध शेष रहता है, जब कि विदेह-मुक्तावस्थामे किसी भी प्रकारके शरीरका सम्बन्ध प्रवाशष्ट नही रहता। १४ ससारी जीवोके त्रस और स्थावर ये मुख्य दो भेद हैं, जिनके उत्तरोत्तर भेद अनेकानेक हैं। ५५ एकमात्र स्पर्शन इन्द्रियके धारक जीव 'स्थावर' और रसनादि इन्द्रियो तथा मनके धारक जीव 'स' कहलाते हैं। १६. जीवोके ससारी मुक्तादि ये सब भेद पर्यायदृष्टिसे हैं । इसी दृष्टिसे उन्हे अविकसित, अल्पविकसित, बहुविकसित और पूर्णविकसित ऐसे चार भागोमे भी बाटा जा सकता है। १७ जो जीव अधिकाधिक विकसित हैं वे स्वरूपसे ही उनके पूज्य एव आराध्य हैं जो अविकसित या अल्पविकसित हैं, क्योंकि आत्म-गुरगोका विकास सबके लिये इष्ट है। १८ ससारी जीवोका हित इसीमें है कि वे अपनी राग-द्वेष-काम क्रोधादिरूप विभावपरिणतिको छोड़कर स्वभावमे स्थिर-होने-रूप 'सिद्धि को प्राप्त करनेका यत्न करे । १६. सिद्धि 'स्वात्मोपलब्धि' को कहते हैं। उसकी प्राप्तिके लिये
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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