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________________ जाति-पंचायतोंका दंड-विधान ___ २५५ खुशीसे उसकी भ्रूण-हत्या कर डालो, अथवा बालक प्रसव कराकर उसे कही जगल आदिमे डाल आनो या मार डालो, परन्तु खुले रूपमें जाति-बिरादरीके सामने यह बात न आने दो कि तुमने उस विधवाके साथ सम्बन्ध किया है इसीमे तुम्हारी खैर है-मुक्ति है और नहीं तो जातिसे खारिज कर दिए जानोगे । जाति-विरादरियो अथवा पचायतियोकी ऐसी नीति और व्यवहारके कारण ही आज कल भारतवर्षका और उसमे भी उच्च कहलानेवाली जातियोका बहुत ही ज्यादा नैतिक पतन हो रहा है । ऐसी हालतमे पापियोका सुधार और पतितोंका उद्धार कौन करे,यह एक बड़ी कठिन समस्या उपस्थित है। एक बात और भी नोट किए जाने योग्य है और वह यह कि यदि कोई मनुष्य पापकर्म करके पतित होता है तो उसके लिए इस बातकी खास जरूरत रहती है कि वह अपने पापका प्रायश्चित्त करनेके लिये अधिक धर्म करे, उसे ज्यादह धर्मकी ओर लगाया जाय और अधिक धर्म करनेका मौका दिया जाय, परन्तु आजकल कुछ जैन जातियो और जैन पचायतोकी ऐसी उल्टी रीति पाई जाती है कि वे ऐसे लोगोको धर्म करनेसे रोकते है-उन्हे जिनन्दिरोमें जाने नही देते अथवा वीतराग भगवानकी पूजा-प्रक्षाल नहीं करने देते, और भी कितनी ही आपत्तियाँ उनके धार्मिक अधिकारोपर खडी कर देते है। समझमे नही आता यह कैसी पापोसे घृणा और धर्मसे प्रीति, अथवा पतितोके उद्धारकी इच्छा है ।। और किसी बिरादरी या पचायतको किसीके धामिक अधिकारोमें हस्तक्षेप करनेका क्या अधिकार है ? जैनियोमें अविरत-सम्यग्दृष्टिका भी एक दर्जा (चतुर्थ गुणस्थान) है । और अविरतसम्यग्दृष्टि उसे कहते हैं जो इन्द्रियोके विषयो तथा त्रस-स्थावर जीवोकी हिंसासे विरक्त नही होता-अथवा यो कहिये कि इन्द्रियसयम और प्राणिसयम नामक दोनो संयमोंमेंसे किसी
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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