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________________ ४०८ युगवीर-निबन्धावली महावीरके इस अनेकान्त-शासन-रूप तीथमे यह खूबी खुद मौजूद है कि इससे भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि ( मध्यस्थवृत्ति ) हुमा उपपत्ति-चक्षुसे (मात्सर्यके त्यागपूर्वक युक्तिसगत समाधानकी दृष्टिसे) इसका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मान-शृङ्ग खण्डित हो नाता है-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका प्राग्रह छूट जाता है और वह अभद्र या मिथ्यादृष्टि होता हश्रा भी सब प्रोरसे भद्ररूप एव सम्यग्दृष्टि बन जाता है। अथवा यो कहिये कि भगवान् महावीरके शासनतीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है। इसी बातको स्वामी समन्तभद्रने अपने निम्न वाक्य-द्वारा व्यक्त किया है काम द्विषनप्युपपत्तिचक्षु समीक्षता ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्र वं खसिद्धतमानशृङ्गो भवत्यमद्रोऽपि समन्तभद्र । -युक्तयनुशासन प्रत इस तीर्थके प्रचार-विषयमे जरा भी सकोचकी जरूरत नहीं है, पूर्ण उदारताके साथ इसका उपयुक्त रीतिसे योग्य-प्रचारकोंके द्वारा खुला प्रचार होना चाहिये और सबोको इस तीर्थकी परीक्षाका तथा इसके गुणोको मालूम करके इससे यथेष्ट लाभ उठाने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिये । योग्य प्रचारकोका यह काम है कि वे जैसे-तैसे जनतामें मध्यस्थभावको जाग्रत करे, ईर्षा-द्वेषादिरूप मत्सर-भावको हटाएं, हृदयोको युक्तियोंसे सस्कारित कर उदार बनाएँ, उनमे सत्यकी जिज्ञासा उत्पन्न करे और उस सत्यकी दर्शन प्राप्तिके लिये लोगोकी समाधान-दृष्टिको खोलें।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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