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________________ ३६८ युगवीर - निबन्धावली प्रार्थनाएँ जब जिनेन्द्रदेवको साक्षात् रूपमे कुछ करने-करानेके लिये प्रेरित करती हुई जान पडती हैं तो वे अलकृत रूपको धारण किये हुए होती हैं। ऐसी प्रलकृतरूपधारिणी प्रार्थनाम्रोके स्वयभूस्तोत्रगत कुछ नमूने इस प्रकार है चेतो मम नाभिनन्दन (५) १ पुनातु २ जिन श्रिय मे भगवान् विधत्ताम (१०) ३ ममार्य । देया शिवतातिमुकचे (१५) ४. पूयात्पवित्रो भगवान मनो मे (४०) ५ श्रेयसे जिनवृष । प्रसीद म (७५) ये सब प्रार्थनाएँ चित्तको पवित्र करने, जिनश्री तथा शिवसतातको देने श्रौर कल्याण करनेकी याचनाको लिये हुए है, ग्रात्मोत्कर्ष एव प्रात्मविकासको लक्ष्य करके की गई है। इनमे असंगतता तथा प्रसभाव्य-जैसी कोई बात नही है -- सभी जिनेन्द्रदेव के सम्पर्क, प्रभाव तथा शरणमे आनेसे स्वय सफल होनेवाली अथवा भक्ति-उपासनाके द्वारा सहज साध्य है--और इसलिये अलकारको भाषामे की गई एक प्रकार की भावनाएँ ही है । वास्तवमे परमवीतरागदेवसे विवेकीजनकी प्रार्थनाका अर्थ देवके समक्ष अपनी भावनाको व्यक्त करना है अथवा यो कहिये कि अलकारकी भाषामे मन कामनाको व्यक्त करके यह प्रकट करना है कि 'वह आपके चरण-शरण एव प्रभावमे रहकर और उससे कुछ पदार्थ पाठ लेकर आत्मशक्तिको जागृत एव विकसित करता हुआ अपनी उस इच्छाकामना या भावनाको पूरा करनेमें समर्थ होना चाहता है । उसका यह प्राशय कदापि नही होता कि वीतरागदेव भक्ती प्रार्थनासे द्रवीभूत होकर अपनी इच्छाशक्ति एव प्रयत्नादिको काममे लाते हुए स्वयं उसका कोई काम कर देगे अथवा दूसरोसे प्रेरणादिके द्वारा करा देगे । ऐसा प्राशय सभाव्यको सभाव्य बनाने जैसा है और देवके स्वरूपसे अनभिज्ञता व्यक्त करता है ।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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