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________________ ३४८ युगवीर-निबन्धावली उनकी आवश्यकताएं पूरी न करके, संकटमें डालता तथा कष्ट पहुंचाता है। ४ स्वपरवैरी वह है जो हिमा, भूठ, चोरी, कुशीलादि दुष्कर्म करता है, क्योकि ऐसे पाचरणोके द्वारा वह दूसरोको ही कष्ट तथा हानि नही पहुंचाता बल्कि अपने आत्माको भी पतित करता है और पापोंसे बाँधता है, जिनका दुखदाई अशुभ फल उसे इसी जन्म अथवा अगले जन्ममें भोगना पडता है। इसी तरहके और भी बहुतसे उदाहरण दिये जा सकते हैं। परन्तु स्वामी समन्तभद्र इस प्रश्न पर एक दूसरे ही ढगसे विचार करते हैं और वह ऐसा व्यापक विचार है जिसमे दूसरे सब विचार समा जाते हैं। प्रापकी दृष्टि में वे सभी जन स्व-पर-वैरी है जो 'एकान्तपहरक' है ( एकान्तग्रहरक्ता स्वपरवरिण )। अर्थात् जो लोग एकान्तके ग्रहणमे आसक्त हैं - सर्वथा एकान्तपक्षके पक्षपाती अथवा उपासक हैं-और अनेकान्तको नही मानते- वस्तुमें अनेक गुरग-धर्मोंके होते हुए भी उसे एक ही गुण-धर्मरूप अगीकार करते हैं, वे अपने और परके वैरी है। मापका यह विचार देवागमकी निम्नकारिकाके 'एकान्तयहरक्तषु' 'स्वपरवरिषु' इन दो पदो परसे उपलब्ध होता है. कुशालाकुशल कर्म परलोकश्च न चित् । एकान्त-ग्रह-रक्तषु नाथ | स्व-पर वैरिषु ॥८॥ इस कारिकामे इतना और भो बतलाया गया है कि ऐसी एकान्त-मान्यतावाले व्यक्तियोमेसे किसीके यहाँ भी-किसीके भी मतमे-शुभ-अशुभ-कर्मकी, अन्य जन्मकी और 'चकार' से इस जन्मकी, कर्मपालकी तथा बन्ध-मोक्षादिककी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । और यह सब इस कारिकाका सामान्य मर्थ है। विशेष पर्षकी दृष्टिसे इसमें साकेतिकरूपसे यह भी सनिहित है कि ऐसे एकान्त पक्षपातीबन स्वपरवेरी कैसे हैं मोर क्योकर उनके पुष
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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