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________________ गात्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह जनसिद्धान्तमे-जैनियोकी कफिलोसोफीमें- 'गोत्र' नामका भी एक कर्म है और उसके ऊँच, नीच ऐसे कुल दो ही भेद किये है। गोम्मटसार ग्रन्थमे बतलाया है कि सन्तान'-क्रमसे चले पाए जीवोंके माचरण-विशेषका नाम गोत्र' है। वह प्राचरण ऊँचा और नीचा दो प्रकारका होनेसे गोत्रके भी सिर्फ दो भेद हैं, एक उच्चगोत्र और दूसरा नीचगोत्र । यथा - सनानकमेणागय जोवायरबस्स गोदि मण्णा । उच्च णीच चरण उच्च णीच हवे गोद ॥ परन्तु आजकल जैनियोमे जो सैकडो गोत्र प्रचलित हैं- उनकी ८४ जातियोमे प्राय सभी जातियाँ, समान आचरण होते हुए भी. कुछ न कुछ गोत्र-सख्याको लिये हुए है वे सब गोत्र उक्त सिद्धान्तप्रतिपादित गोत्र-कथनसे भिन्न है, उनमे 'उच्च और 'नीच' नामके कोई गोत्र हैं भी नही, और न किसी गोत्रके भाई ऊँच अथवा नीच समझे जाते हैं। इन गोत्रोके इतिहास पर जब दृष्टि डाली जाती है तो वह बडा ही विचित्र मालूम होता है और उससे यह बात सहज ही समझमे आ जाती है कि ये सब गोत्र कोई अनादिनिधन नही हैं-वे भिन्न-भिन्न समयोपर भिन्न भिन्न कारणोको पाकर उत्पन्न, हुए और इसी तरह कारण-विशेषको पाकर किसी न किसी समय
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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