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________________ गोत्र-स्पिति पीर समीक-विवाह २३३ नष्ट हो जामेवाले हैं। अनेक गोत्र केवल ऋषियोक नामो पर प्रतिष्ठित हुए, कितने ही गोत्र सिर्फ नगर-यामादिकोंके नामो पर रखे गये और बहुतसे गोत्र वंशके किसी प्रधानपुरुष, व्यापार, पेशा अवका किसी घटनाविशेषको लेकर ही उत्पन्न हुए है । और इन सब गोत्रोंकी उत्पत्ति या नामकरणसे पहले पिछले गोत्र नष्ट हो गये यह स्वत सिद्ध है-अथवा यो कहिये कि जिन जिन लोगोने नवीन मोत्र धारण किये उनमें और उनकी सततिमें पिछले गोत्रोका प्रचार नहीं रहा । यहाँ पर इन गोत्रोकी कृत्रिमता और परिवर्तनशीलताका कुछ दिग्दर्शन करा देना उचित मालूम होता है और उसके लिये अग्रवाल खडेलवाल तथा ओसवाल जातियोंके गोत्रोंको उदाहरणके तौरपर लिया जाता है । इस दिग्दर्शन परसे पाठकोको यह समझनेमे आसानी होगी और वे इस बातका अच्छा निर्धार कर सकेगे कि आजकल इन गोत्रोको जो महत्त्व दिया जाता है अथवा विवाह-शादीके अवसरो पर इनका जो आग्रह किया जाता है वह कहाँ तक उचित तथा मान्य किये जानेके योग्य है - (१) अग्रवाल जातिके इतिहाससे मालूम होता है कि अग्रवालवशके आदिपुरुष राजा अग्रसेन थे। वे जिस गोत्रके व्यक्ति थे वही एक गोत्र, याजकलकी दृष्टि मे, उनकी सततिका-सम्पूर्ण अग्रवालोका-होना चाहिये । परन्तु ऐसा नहीं है। अग्रवाल जातिमें प्राज १८ गोत्र प्रचलित हैं और ये गोत्र राजा अग्रसेनके अठारह पुत्रों द्वारा धारण किये हुये गोत्र है, जिनकी कल्पना उन्होने अपनी सततिके विवाह-सकटको दूर करनेके लिये की थी। इनमेसे गर्ग आदि अधिकाश गोत्रोका नामकरण तो उन गर्गादि ऋषियोके नामो पर हुआ है जो पुष्पदेवादि राजकुमारोंके अलग अलग विद्यागुरु थे और बाकीके वृन्दल, जैत्रल (जिदल) आदि कुछ गोत्र वृन्ददेवादि राजकुमारोंके नामो परसे ही निर्धारित किये गये अथवा प्रचलित हुए जान पडते हैं । ऐसी हालतमे यह स्पष्ट है कि राजा अग्रसेनका गोत्र
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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