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________________ सकाम-धर्मसाधन त्मा कहलाता है । जो जीव कषायभाबसे युक्त हुप्रा विषयसोख्यकी तृष्णासे-इद्रियविषयको अधिकाधिक रूपमे प्राप्त करनेकी तीनइच्छासे-पुण्य करना चाहता है -पुण्य क्रियामोके करनेमे प्रवृत्त होता है-उससे विशुद्धि बहुत दूर रहती है और पुण्य-कर्म विशुद्धिमूलक-चित्तकी शुद्धि पर आधार रखनेवाले होते हैं । प्रत. उनके द्वारा पुण्यका सम्पादन नही हो सकता-वे अपनी उन धर्मके नामसे अभिहित होनेवाली क्रियाओंको करके पुण्य पैदा नहीं कर सकते। चूकि पुण्यफलकी इच्छा रखकर धर्मक्रियाप्रोके करनेसेसकाम-धर्मसाधनसे--पुण्यकी सम्प्राप्ति नहीं होती, बल्कि निष्कामरूपसे धर्मासाधन करनेवालेके ही पुण्यकी सप्राप्ति होती है, ऐसा जानकर पुण्यमे भी आसक्ति नहीं रखना चाहिए। वास्तवमे जो जीव मदकषायसे परिणत होता है वही पुण्य बाधता है, इसलिये मन्दकषाय ही पुण्यका हेतु है, विषयवांछा पुण्यका हेतु नहीविषयवाछा अथवा विषयासक्ति तीवकषायका लक्षण है और उसका करनेवाला पुण्यसे हाथ धो बैठता है।' इन वाक्योसे स्पष्ट है कि जो मनुष्य धर्म-साधनके द्वारा अपने विषय-कषायोकी पुष्टि एव पूर्ति चाहता है उसकी कषाय मन्द नही होती और न वह धर्मके मार्ग पर स्थिर ही होता है, इसलिए उसके द्वारा वीतराग भगवान्की पूजा-भक्ति-उपासना तथा स्तुतिपाठ, जपध्यान, सामायिक, स्वाध्याय, तप, दान और व्रत-उपवासादिरूपसे जो भी धार्मिक क्रियाए बनती है वे सब उसके आत्मकल्याणके लिए नहीं होती---उन्हे एक प्रकारको सासारिक दुकानदारी ही समझना चाहिए। ऐसे लोग धार्मिक क्रियाए करके भी पाप उपार्जन करते हैं और सुखके स्थानमे उलटा दुखको निमन्त्रण देते हैं । ऐसे लोगोकी इस परिणतिको श्रीशुभचन्द्राचार्यने, ज्ञानावग्रन्थके २५ बे प्रकरणमे, निदान-जनित प्रात्तध्यान लिखा है और उसे घोर दु.खोका कारण बतलाया है। यथा.---
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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