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________________ ३२२ युगवीर-निबन्धाबली जाने पर-चारित्रके पाराधनका-अनुष्ठानका-निर्देश किया गया है-रत्नत्रयधर्मकी आराधनामें, जो मुक्तिका मार्ग है, चारित्रकी आराधनाका इसी क्रमसे विधान किया गया है। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने, प्रवचनसारमे, 'चारित्त खलु धम्मो' इत्यादि वाक्यके द्वारा जिस चारित्रको स्वरूपाचरणको-वस्तु-स्वभाव होनेके कारण धर्म बतलाया है वह भी यही विवेकपूर्वक सम्यकचारित्र है, जिसका दूसरा नाम साम्यभाव है और जो मोह-क्षोभ अथवा मिथ्यात्व-राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादिरूप विभाबपरिणतिसे रहित आत्माका निज परिणाम होता है । वास्तवमे यह विवेक ही उस भावका जनक होता है जो धर्माचरणका प्राण कहा गया है । विना भावके तो क्रियाए फलदायक होती ही नहीं है। कहा भी है यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्या । तदनुरूप भावके बिना पूजनादिककी, तप-दान-जपादिककी और यहाँ तक कि दीक्षाग्रहणादिककी सब क्रियाएँ भी ऐसी ही निरर्थक हैं जैसे कि बकरीके गलेके स्तन (थन), अर्थात् जिस प्रकार बकरीके गलेमे लटकते हुए स्तन देखनेमे स्तनाकार होते हैं, परन्तु वे स्तनोका कुछ भी काम नहीं देते--उनसे दूध नही निकलता--उसी प्रकार बिना तदनुकूल भावके पूजा-तप-दान-जपादिककी उक्त सब क्रियाएँ भी देखनेकी ही क्रियाएँ होती है, पूजादिकका वास्तविक फल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता । १ चारित्त खलु धम्मो धम्मो जो समो त्ति रिणद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्परणो हु समो।।७।। २. देखो, कल्याणमन्दिरस्नोत्रका 'माकरिंगतोऽपि' आदि पद्य । ३. भावहीनस्य पूजादि-तपोदान-जपादिकम् ।। व्यथं दीक्षादिकं च स्यादजाकठे स्तनाविव ।।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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