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________________ जिनपूजाधिकार-मीमासा १०५ किया जा सकता है। जैनसाहित्यमें उदारचरित-महात्माओंकी कमी नही है । आज कल भी जो अनेक पर्वतोपर खुले मैदानमें तथा गुफाओंमें जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं और दक्षिणादिदेशोमे कहीं कहींपर जिनप्रतिमनोसहित मानस्तभादिक पाये जाते है, वे सब जैनपूर्वजोकी उदार-चित्तवृत्तिके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं। उदारचरित-महात्माओंके आश्रित रहनेसे ही यह जैनधर्म अनेकवार विश्वव्यापी हो चुका है । अब भी यदि राष्ट्रधर्मका सेहरा किसी धर्मके सिर बँध सकता है तो वह यही धर्म है जो प्राणीमात्रका शुभचिन्तक है। ऐसे धर्मको पाकर भी हृदयमे इतनी सकीर्णता और स्वार्थपरताका होना, कि एक भाई तो पूजन कर सके और दूसरा भाई पूजन न करने पावे, जैनियोंके लिये बडी भारी लज्जाकी बात है । जिन जैनियोका, 'वसुधैव कुटुम्बकम्'x यह खास सिद्धान्त था, क्या वे उसको यहाँ तक भुला बैठे कि अपने महर्मियोमे भी उसका पालन और वर्ताव न करे। जातिभेद या वर्णभेदके कारण आपसमे ईर्षा-द्वेष रखना, एक दूसरेको घृणाकी दृष्टिसे अवलोकन करना और अपने लौकिक कार्यों-सबधी कषायको धार्मिक कार्यमे निकालना, ये सब जैनियोंके प्रात्म-गौरवको नष्ट करनेवाले कार्य है । जैनियोको इनसे बचना चाहिये और समझना चाहिये कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद्र ये चारो वर्ण अपनी अपनी क्रियानो (वृत्ति)के भेदकी अपेक्षा वर्णन किये गये हैं। वास्तवमे चारों ही वर्ण जैनधर्मको धारण करने एवं जिनेद्रदेवकी पूजा-उपासना करनेके योग्यहै और इस सम्बन्धसे जैनधर्मको पालन करते हुए सब आपसमे भाई भाईके समान है । इसलिये, हृदयकी सकीर्णता x ममस्त भूमडल अपना कुटुम्ब है । * विप-क्षत्रिय-विट-शद्रा प्रोक्ता. क्रियाविशेषतः । जैनधर्म परा शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमा.॥ -सोमसेनाचार्य
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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