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________________ १३८ युगवीर-निबन्धावली उत्पन्न करने और उसकी रक्षा करनेमें यत्ल करना चाहिए। विवाह के द्वारा प्रजाका सिलसिला बद न होकर धमका सिलसिला बराबर जारी रहता है । इससे विवाहका साफ उद्देश्य धार्मिक सतानका उत्पन्न करना पाया जाता है। इसी तरह श्रीसोमदेवसूरि और १० आशाधरजी प्रादि दूसरे जैन विद्वानोने भी सतानोत्पादनको विवाहका उद्देश्य बतलाया है। हिन्दू-धर्मके विद्वानोका भी इस विषयमे प्राय ऐसा ही मत है। संगठनकी जरूरतका बाह्यदृष्टि से विचार अब देखना यह है कि विवाहद्वारा सतान उत्पन्न करके समाजमगठन की जरूरत क्यो पैदा होती है ? जरूरत इसलिये होती है कि यह जीवन एक प्रकारका 'युद्ध' है -लौकिक और पारलौकिक - धर्मो गृहस्थजनता-विहितोऽयमास्ते। नादिप्रवाह इति सन्तति-पालनार्थ मेवं कृतौ मुनिवृषे विहितादर' स्यात् ।। १ वे भी धार्मिक प्रजाकी अथवा धर्म और प्रजा (सतति ) दोनोकी सततिको विवाहका प्रयोजन मानते है, जैसा कि याज्ञवल्क्य-स्मृतिके निम्न श्लोक और उमको 'मिनाक्षरा' टोकासे प्रकट है - लोकानन्य दिव प्राप्ति पुत्रपौत्रप्रपौत्रकै । यस्मात्तस्मास्त्रिय' सेव्या. कर्तव्याश्च सुरक्षिता ॥ टोका - लोके पानत्य व शस्या विच्छेद दिव प्राप्तिश्च दारसग्रहस्य प्रयोजनम् । कथमित्याह । पुत्र-पौत्र-प्रपौत्र कर्लोकानन्त्यम् अग्निहोत्रादिभिश्च स्वर्गप्राप्तिरित्यन्वय । यस्मात् स्त्रीभ्य एतदद्वय भवति तस्मात् स्त्रियः सेव्या उपभोग्या. प्रजार्थम । रक्षित् व्याश्च धमर्थिम् । तथा चाऽपस्तम्बेन धर्मप्रजासपत्ति प्रयोजन दारसग्रहस्योक्त 'धर्मप्रजामपन्नेषु दारेषु नान्या कुर्वीत' इति वदता । रति-फल तु लौकिकमेव ।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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