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________________ २८० युगवीर-निबन्धावली ऊपर पर्वतकी दोनो चोटियोंके अग्रभागसे बंधे हुए एक तारके बीचमे लटक रहा है और अपने प्रतिबिम्बसे जलको प्रतिबिम्बित कर रहा है। यदि तुम उसे लेना चाहते हो, तो ऊपर चढकर वहाँ तक पहुँचनेकी कोशिश करो, तभी तुम उसे पा सकोगे, अन्यथा नहीं-- तुम्हारी यह गोताखोरी अथवा जलावगाहनकी क्रिया व्यर्थ है।' इसमे सन्देह नही कि जो चीज जहाँ मौजूद ही नहीं वह वहाँ पर कितनी भी द ढ खोज क्यो न की जाय कदापि नही मिल सकती । कोई चीज ढूढने अथवा तलाश करनेपर वहीसे मिला करती है जहाँपर वह मौजूद होती है । जहाँ उसका अस्तित्व ही नही वहाँसे वह कैसे मिल सकती है ? सूख चू कि आत्मासे बाहर दूसरे पदर्थोमे नही है इसलिये उन पदार्थोंमे उसकी तलाश फिजूल है, उसे अपनी आत्मामे ही खोजना चाहिये और यह मालूम करना चाहिये कि वह कैसे कैसे कर्मपटलोके नीचे दबा हुआ है, हमारी केसी परिगतिरूपी मिट्टी उसके ऊपर आई हुई है और वह कैसे हठाई जा सकती है। परन्तु हम अपनी आत्माकी सुध भूले हुए है, उसकी सुखकी निधिसे बिल्कुल ही अपरिचित्त और अनभिज्ञ है और इसलिये सखकी तलाश प्रात्मासे बाहर दूसरे पदार्थोंमे - विजातीय वस्तुप्रोमें--करते है। सुखकी प्राप्तिके लिये उन्हीके पीछे पड़े हुए है-- यहाँसे भी सुख मिलेगा, यह भी हमको सुख दे सकेगा इसी प्रकारके विचारोसे बंधे हुए हम उन्ही पदार्थों का सग्रह बढाते जाते है, उन्हीकी ज़रूरियातको अपने जीवनके साथ चिपटाते रहते हैं और इस तरह खुद ही अपनेको दु खोके जालमे फँसाते और दुखी होते है, यह अजब तमाशा है ।।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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