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________________ युगवीर-निबन्धावली पानी भरकर अभिषेक करने और कमलका फूल चढाकर बॉबीमें स्थित प्रतिमाका नित्यपूजन करनेसे अगले ही जन्ममें मनुष्यभवके साथ साथ राजपद और राज्य न मिलता। इससे प्रगट है कि शूलोंका पूजन करना असत्कर्म नहीं हो सकता, बाल्क वह सत्कर्म है। माराधनासारकथाकोश,मे भी ग्वालेके इस पूजन-कर्मको सत्कर्म ही लिखा है, जैसा कि कार उल्लेख किये हुए श्लोक न १६ के चतुर्थ पदसे प्रगट है। ' इन सब बातोके अतिरिक्त जैनशास्त्रोमे शूद्रोके पूजनके लिए स्पष्ट आज्ञा भी पाई जाती है। धर्मस प्रहश्रावकाचारके स्वे अधिकारमे लिखा है - यजन याजन कर्माऽध्ययनाऽध्यापन तथा । दान प्रतग्रहश्चति षद की द्विजन्मनाम् ॥ २२५॥ यजनाऽध्ययन बान परषा त्राण ते पुन । जानि-ना-मेदन द्विब्राह्मगादय ॥२०॥ अर्थात् ब्राह्मरगोके पूजन करना पूजन कराना, पढना पढाना दान दना, श्रार दान लेना ये छह कम है । शेष क्षत्रिय, वश्य और शूद्र इन तीन वर्गों के पूजन करना पढना और दान देना ये तीन कम है । और वे ब्राह्मणादिक जाति और तीर्थके भेदसे दो प्रक,रके है। इससे साफ प्रगट हे कि पूजन करना जिस प्रकार ब्राह्मण क्षत्रिय पार पश्योका धार्मिक कर्म है उसी प्रकार वह शूद्राका भी धार्मिक कम है। इसी ग्रहश्राबवाचारके हब अधिकारके श्लोक न. १४२ में, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, श्रीजनेन्द्रदेवकी पूजा करनेवालेके दो भेद वर्णन किये है-एक नि यपूजन करनेवाला जिस को पूजक कहते हैं। और दूसरा प्रतप्ठादि विधान करनेवाला. जिसको 'पूजकाचार्य' कहते हैं । इसके पश्चात् दो श्लोकोमें, ऊंचे दर्जे के नित्यपूजकको लक्ष्य करके, प्रथम भेद अर्थात् पूजकका स्वरूप झा
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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