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जिन-पूजाधिकार-मीमांसा
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शूद्रलोग पूजन करते हैं। जो जेनी शूद्र हैं या शूद्रोंका कर्म करते हुए जिनको पीढ़याँ बीत गईं, वे तो पूजन करते ही हैं, परन्तु बहुतसे ऐसे भी शूद्र हैं जो प्रगटरूप या व्यवहारमें जैनी न होते या न कहलाते हुए भी किसी प्रतिमा वा तीर्थस्थानके अतिशय (चम कार / पर मोहित होने के कारण उन स्थानोपर बराबर पूजन करते हैं- चादनपुर ( महावीरजी), केसरियानाथ आदिक अतिशय क्षेत्रो और श्रीसम्मेद - शिखर, गिरनार आदि तीर्थस्थानोपर ऐसे शूट पूजकों की कमी नही है । ऐसे स्थानोपर नीच ऊँच सभी जातियाँ पूजनको प्रती और पूजन करती हुई देखी जाती हैं । जिन लोगोको चैत के मेले पर चादनपुर जानेका सुअवसर प्राप्त हुआ है, उन्होने प्रत्यक्ष देखा होगा अथवा जिनको एसा अवसर नहीं मिला वे जाकर देख सकते हैं कि चैत्र शुक्ला चतुर्दशीसे लेकर ३-४ दिन तक कैसी कैसी नीच जातियोके मनुष्य श्रौर कितने शूद्र अपनी अपनी भाषा में अनेक प्रकारकी जय बोलते आनंदमें उछलते और कूदते, मंदिरके श्रीमहमें घुस जाते हैं और वहाँ पर अपने घर से लाये हुए द्रव्यको चढाकर तथा प्रदक्षिणा देकर मंदिरसे बाहर निकलते हैं। बल्कि वहाँ तो रथो सवके समय यहांतक होता है कि मंदिरका व्यासमाली, जो चढी हुई सामग्री लेनेवाला और निर्माल्य मक्षरण करनेवाला है, स्वयं वीरभगवानकी प्रतिमाको उठाकर रथमें विराजमान करता है ।
यदि शूद्रोका पूजन करना असत्कर्म (बुरा काम ) होता और उससे उनको पापबन्ध हुआ करता, तो पशुचरानेवाले नीचकुली ग्वाले को कमलके फूलसे भगवानकी पूजा करनेपर उत्तम फलकी प्राप्ति न होती और मालीकी लडकियोको पूजन करनेसे स्वर्ग न मिलता । इसीप्रकार शूद्रोंसे भी नीच पद धारण करनेवाले मेढक जैसे तियंच ( जानवर) को पूजनके संकल्प और उद्यम मात्रसे देवर्गातकी प्राप्ति ब होती [क्योंकि जो काम बुरा है उसका संकल्प और उद्यम भी बुरा ही होता है अच्छा नहीं हो सकता ] और हाथीको, अपनी सूडमें