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________________ सेवा-धम ३३५ इसके सिवाय, अनादिकालसे हम निर्बल, असहाय, दीन, दुखित पतित, मार्गच्युत और अज्ञ-जैसी अवस्थामोमें ही अधिकतर रहे हैं और उन अवस्थाप्रोमें हमने दूसरोंकी खूब सेवाएं ली हैं तथा सेवासहायताकी प्राप्तिके लिये निरन्तर भावनाए भी की हैं, और इसलिये उन अवस्थाप्रोमें पडे हुए अथवा उनमेसे गुजरनेवाले प्राणियोकी सेवा करना हमारा और भी ज्यादा कर्त्तव्यकर्म है, जिसके पालनके लिये हमें अपनी शक्तिको जरा भी नही छिपाना चाहियेउसमे जी चुराना अथवा आना-कानी करने जैसी कोई बात न होनी चाहिये। इसीको यथाशक्ति कर्तव्यका पालन कहते है। __ एक बच्चा पैदा होते ही कितना निर्बल और असहाय होता है और अपनी समस्त प्रावश्यकतानोकी पूर्तिके लिये कितना अधिक दूसरो पर निर्भर रहता अथवा प्राधार रखता है । दूसरे जन उसकी खिलाने-पिलाने, उठाने-बिठाने, लिटाने-सूलाने, प्रोढने-बिछाने, दिलबहलाने, सर्दी-गर्मी प्रादिसे रक्षा करने और शिक्षा देने-दिलानेकी जो सेवाए करते है वे सब उसके लिये प्राणादानके समान हैं। समर्थ होने पर यदि वह उन सेवाग्रोको भूल जाता है और घमडमे आकर अपने उन उपकारी सेवकोकी-माता-पितादिकोकी- सेवा नही करता-- उनका तिरस्कार तक करने लगता है तो समझना चाहिये कि वह पतनकी ओर जा रहा है । ऐसे लोगोको ससारमे कृतघ्न, गुणमेट और अहसानफरामोश जैसे दुर्नामो से पुकारा जाता है। कृतघ्नता अथवा दूसरोके किये हुए उपकारो और ली हुई सेवाग्रोको भूल जाना बहुत बड़ा अपराध है और वह विश्वासघातादिकी तरह ऐसा बड़ा पाप है कि उसके भारसे पृथ्वी भी कांपती है । किसी कविने ठीक कहा है - कर विश्वासघात जो कोय,कीया कृतको विसरै जोय । पाण्द पड़े मित्र परिहरे, तासु भार धरणी थरहरै ।। • ऐसे ही पापोका भार बढ जानेसे पृथ्वी अक्सर डोला करतो
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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