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________________ १७८ युगवीर-निबन्धावली दु.खोका ही पात्र रहा-मुझे दुःखोंसे छुटकारा ही न मिला-क्योकि भावशून्य क्रियाएँ फलदायक नहीं होती। ___एक दूसरे प्राचार्य लिखते हैं कि, बिना भावके पूजा आदिका करना, तप तपना, दान देना, जाप्य जपना,--माला फेरना-पौर यहाँ तक कि दीक्षादिक धारण करना भी ऐसा निरर्थक होता है जैसा कि बकरीके गलेका स्तन । अर्थात् जिस प्रकार बकरीके गलेमे लटकते हुए स्तन देखनेमें स्तनाकार होते हैं परन्तु वे स्तनोका कुछ भी काम नही देते-उनसे दूध नहीं निकलता-उसी प्रकार बिना भावकी पूजनादि क्रियाएँ भी देखने-ही-की क्रियाएं होती हैं, पूजादिका वास्तविक फल उनसे कुछ भी प्राप्त नही हो सकता । यथा - भावहीनस्य पूजादितपोदानजपादिकम । व्यर्थ दीक्षादिक च स्यादजाकठे स्तनाविव ।। इससे स्पष्ट है कि हमारी उपासनासम्बधी क्रियाओंमे भावकी बडी ज़रूरत है-भाव ही उनका जीवन और भाव ही उनका प्राण है बिना भावके उन्हे निरर्थक और निष्फल समझना चाहिये । परतु यह भाव उपासना-तत्त्वको समझे बिना कैसे पैदा हो सकता है ? अत अपनेमे इस भावको उत्पन्न करके अपनी क्रियानोंको सार्थक बनानेके लिये जैनियोको, आमतौर पर, अपना उपासना-तत्त्व समझने और समझकर तदनुकूल वर्तनेकी बहुत बड़ी जरूरत है। इसी क्योकि जिनेन्द्र कर्मोंका नाश करनेवाले हैं। उन्होने अपने आत्मासे कर्मोको निमल कर दिया है। इसी आशयको प्राचार्य कुमुदचन्द्रने निम्नलिखित पद्यमे प्रगट किया है - हृर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीभवन्ति, जन्तो क्षरणेन निविडा अपि कर्मबन्धा । सद्यो भुजगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखडिनि चदनस्य ॥ -कल्याणमदिर
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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