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________________ युगवीर - निबन्धावली विचार करते हैं तो उस समय हमको मालूम होता है और कहना पडता है कि यह सब जैनियोके अपने ही कर्मोंका फल है । जो जैसा करता है वह वैसा ही फल पाता है । अवश्य ही जैनियोने कुछ ऐसे काम किये हैं जिनका कटुक फल वे अब तक भुगत रहे हैं। यह कभी हो नही सकता कि अत्याचार तो करे दूसरे लोग और फल उसका भोगना पडे जैनियोंको। जैन फिलासोफी इसको माननेके लिए तैयार नही । यदि थोडी देरके लिए उस मनुष्यको भी जिस पर अत्याचार किया गया हो, कोई बुरा फल सहन करना हो अथवा किसी प्रपत्तिका निशाना बनना पडे, तो कहना होगा कि उसने भी जरूर अपनी चेष्टा या अपने मन-वचनादिकके द्वारा दूसरोके प्रति कोई अत्याचारविशेष किया है और वह बुरा फल उसके ही किसी कर्मविशेषका नतीजा है । यही हालत जैनसमाजकी है । यद्यपि इसमे कोई संदेह नही कि पिछले समयमे जैनियो पर थोडे बहुत प्रत्याचार जरूर हुए हैं, परन्तु वे अत्याचार जैनियोकी वर्तमान दशाके कारण नही हो सकते। जैनियोकी वर्तमान अवस्था कदापि उनका फल नही है । यदि जैनियोने उन प्रत्याचारोको मनुष्य बनकर सह लिया होता और स्वय उनसे अधिक अत्याचार न किया होता तो ज़रूर था कि यह जैनबाग (जैनसमाज दूसरोके प्रत्याचाररूपी खाद (Manure) से और भी हराभरा और सरसब्ज होता - खूब फलता और फूलता, परन्तु जैनियोको ऐसी सद्बुद्धि ही उत्पन्न नही हुई। उनके विचार प्राय इतने सकीर्ण और स्वार्थमय रहे हैं कि सदसद्विवेकवती बुद्धिको उनके पास फटकनेमें भी लज्जा आती थी । प्रत्याचार और भी धर्मानुयायिोको सहन करने पडे हैं, परन्तु उनमेंसे जिन्होने अपने कर्तव्यपथको नही छोडा, अपने सामाजिक सुधारको समझा, उन्नति के मार्ग को पहचाना, अपनी त्रुटियोंको दूर किया, सबको प्रेमकी दृष्टिसे देखा और अपने स्वार्थको गौराकर दूसरोंका हितसाधन किया, वे दुःखके दिन व्यतीत करके आज अपने सत्कर्मोंका सुमधुर १०८
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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