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________________ सुगवीर-निबन्धावली प्रतिकल कोई कार्य होता हुआ देखकर खुश हो रहा है-पानन्द मना रहा है तो उस मनुष्यको घोर मानसिक कष्ट एवं दुख उत्पन्न होता है। और वह उसव्यक्तिको अपना हितशत्रू समझने लगता है;फलतः परस्पर वैर-विरोध बढकर अनेकानेक अनर्थ पैदा हो जाते हैं । अतएव मनुष्योको चाहिए कि वे किसीभी प्राणीके साथ उपयुक्त कार्योंमेंसे, जिन्हें वे अपने प्रतिकूल समझते हैं,किसी भी कार्यका आचरण, अनुष्ठान व्यवहार अथवा बर्ताव न करे । __संसारमे उपर्युक्त सब कार्य पाप-कार्य कहे जाते हैं और प्राय. यही पाप-कार्य हैं भी। इन्ही पाप-कर्मोकी वजहसे संसारमे अनेक प्रकारके दुख और कष्ट उठाने पड़ते हैं। पाठकजन जरा सोचिए, और समझिए यह कितना बडा अन्याय और अन्धेर है कि जिस कामको हम स्वय अपने लिए बुरा समझे उसका आचरण तथा व्यवहार दूसरेके लिए करे और हमारा हृदय कुछ भी कम्पायमान न हो हम किस मुंहसे तब यह कह सकते हैं और कौनसे हृदयसे इस बातकी इच्छा कर सकते हैं कि अन्य प्राणी हमारे साथ नेकी करे, अच्छा व्यवहार करे और उपयुक्त प्रकार बुराईसे न प्रवर्ते ? क्या यह न्यायसगत हो सकता है कि हम दूसरोकोदुःख देवे सतावे और फिर उनसे सुख मिलनेकी आशा रक्वे ? कदापि नही । इसलिए हमको चाहिए कि हम इस गुरुमत्रका शरण ग्रहण करे और अपनी पूरण-शक्तिके अनुमार इस पर प्राचरण तथा अमल करे जिससे शीघ्र ही पापोंसे बचकर उत्तम सुखोका अनुभव कर सके । जितने जितने अशोमे हम इस गुरुमत्र पर प्राचरण करेगे उतने उतने प्रशोमे हम पापोंसे बच जाएंगे। हमारे प्राचार्योन इस गुरुमत्रमें ऐसी खूबी रक्खी है कि इसपर प्राचरण करनेवालोको पापोंके भेद-प्रभेदो और उनके लक्षणोको जानने तथा याद रखनेकी कोई विशेष प्राकश्यकता नहीं रहती,और इस गुरुमत्रके प्रचारसे सहज ही संसारभरमें सुख-शान्तिका प्रवाह फैल सकता है।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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