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________________ जैनियोंका अत्याचार ११५ जैतियोंके हाथमे जैनधर्म पड जानेसे ही उन्होंने जैनधर्मका गौरव नहीं समझा और इसलिए दूसरोंपर मनमाना अत्याचार किया है। ____ मैं कहता हूँ कि दूसरोंको धर्म बतलाने या सिखलानेमें धार्मिकभाव और परोपकार बुद्धिको जाने दीजिए,जैनियोंने यह भी नहीं समझा कि परिस्थिति कितने महत्वकी चीज है। क्या परिस्थिति कभी उपेक्षगीय हो सकती है? कदापि नहीं । जहाँ चारो ओरका जलवायु दूषित हो वहाँ कदापि प्रारोग्यता नहीं रह सकती । जहाँ चारो ओर मिथ्यादृष्टियो और पापाचारियोका प्राबल्य हो वहाँ जेनी भी अपना सम्यक्त्व और धर्म कायम नही रख सकते। यदि जैनियोने इस परिस्थितिके महत्वको ही समझ लिया होता तब भी वे प्रात्मरक्षाके लिए ही दूसरोकी स्थितिका सुधार करना अपना कर्तव्य समझते, अवश्य ही दुसरोको धर्मकी शिक्षा देनेका प्रयत्न करते और कदापि धर्मप्रचारके कार्यसे उपेक्षित न होते, परन्तु महर्षियो-द्वारा सरक्षित वीरजिनेन्द्रकी मम्पत्तिको पाकर जैनी ऐसे कृपण बने-इनमें चित्तको कठोर करनेवाली ऐसी धार्मिक-कृपणता आई कि दूसरोको उस सम्पत्तिसे लाभ पहुंचाना तो दूर रहा ये खुद भी उससे कुछ लाभ न उठा सके। याद इस परमोत्कृष्ट जैनधर्मको पाकर जैनी अपना ही कुछ भला करते तो भी एक बात थी, परन्तु कृपरणका धन जिस प्रकार दान और भोगमे न लगकर तृतीया गति (नाश) को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार जैनियोने जैनधम भी तृतीया गतिको पहँचा दिया--न अाप इससे कुछ लाभ उठाया और न दूसरोको उठाने दिया और जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाशको रोक लेते हैं उसी प्रकार इन धार्मिक-कृपरगोने जैनधर्मके प्रकाशको आच्छादित कर दिया ! जौनयोने जिनवाणी माताके साथ जैसा सलूक किया है उसको याद करके तो हृदय कापता है और शरीरके रोगटे खड़े हो जाते हैं। इन्होने माताको उन अधेरी कोठरियोमें बद करके रक्खा,जहाँ रोशनी और हवाका गुज़र नहीं, उसका अंग चूहोंसे कुतरवाया और दीमको
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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