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________________ युगवीर-निबन्धावली नहीं बन सकता और पुरुषार्थका साधन किये बिना मनुष्यका जन्म बकरीके गलेमे लटकते हुए स्तनो (थनो)के समान निरर्थक है। ऐसी स्थितिमें जो मनुष्य अपने शरीरकी रक्षाके लिये उक्त नियमोका पालन करता है वह वास्तवमे धर्मका कार्य करता है और उससे अवश्य उसको पुण्य-फलकी प्राप्ति होती है। हम लोगोने ऋषियोके वाक्योका महत्व नहीं समझा और न यह जाना कि शरीरका बली-निर्बली तथा स्वस्थ-अस्वस्थ होना प्राय सब आहार-विहार पर निर्भर है और आहार-विहार-सम्बन्धी जितनी चर्या है वह सब प्राय वैद्यकशास्त्रके आधीन है। इसीलिये हम अपने आपको सबसे पहले ब्रह्मचर्याश्रममे नही रखते है-एक खास अवस्था तक ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करते है बल्कि उसका निर्मूल करनेके लिये यहाँ तक उद्यत रहते है कि छोटीसी अवस्थामे ही बच्चोका विवाह कर देते हैं । यही कारण है कि हम योग्य आहार-विहार करना नही जानते, और यदि जानते भी है तो प्रमाद या लापर्वाहीमे उसके अनुसार प्रवर्तन नही करते। उदाहरणके तौर पर, बहतसे मनुष्य इस बातको तो जानते हैं कि यदि हम कोई हाडी चूल्हे पर चढावे और उसमे थोडेसे चावल पकनेके लिये डाल देवे, और फिर थोडीसी देरके बाद उसमे और कच्चे चावल डाल देवे, उससे पीछे गेहूँ डाल देवे, उससे कुछ काल पश्चात् कच्चे चने डाल देवे, और उस सेभी कुछ समय बाद फिर कच्चे चावल या और कोई वस्तु डाल देवे और उनमेसे किसीका भी पाक पूरा होनेका अवसर न आने देकर दूसरी दूसरी वस्तु उसमे डालते रहें तो कदापि उस हाडीका पाक ठीक तथा कार्यकारी न होगा। परन्तु यह जानते हुए भी खाने-पीनेके अवमरो पर कुछ ध्यान नहीं रखते-जो वस्तु जिस समय मिल जाती है उसको उसी समय चट कर जाते हैं-इस बातका कुछ विचार नहीं करते कि पहलेका खाया हुआ भोजन हजम होचुका है या कि नहीं? परिणाम जिसका
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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