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विवाह- समुद्देश्य
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त्रिवाहकी समस्या
बडे बडे विद्वानो और ग्राचार्योंका कथन है कि 'स्त्री बिना ज़ज़ीरका - जजीर न होते हुए भी -दृढ बन्धन है, स्त्रीसे बढकर पुरुष के लिए दूसरा कोई बडा बन्धन नही । यथा
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कलत्र नाम नराणामनिगडर्मापि दृढ बुधनमाहु | - सोमदेव न कलत्रात्पर किनिबन्धन विद्यते नृणाम् । शुक्र । वस्तुत विचार करने पर भी ऐसा ही प्रतीत होता है । स्त्रीका परिग्रह करने पर स्वभावसे ही मनुष्य वहुत से प्रशोमे अपना स्वात
- अपनी आजादी - खो बैठता है, तरह तरहकी चिन्ताओ, श्राप - दा तथा ज़िम्मेदारियोकी दलदलमे फँस जाता है और इस तरह पर बन्धनमे पडकर एक अच्छा खासा बन्दी बन जाता है । वास्त-विक दृष्टिसे बन्धनमे पडना कभी इष्ट नही हो सकता । बन्धन से परतत्रता आती है और परतत्रता या पराधीनतामे कही भी असली सुख नही है -- पेरोमें जजीर डालकर खमेसे बाँधा हुआ एक हाथी. कभी अपनी इच्छानुसार सुखपूर्वक बिहार नही कर सकता। इसलिए शास्त्रकारोने बन्धनको दुःख वर्णन किया है । बन्धनसे छूटनेपूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्त करने -- पूरी प्राजादी हासिल करने - ही का