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________________ जिन-पूजाधिकार मीमासा ६१ देखे जाते हैं जो हिंसादिक पाँच पापोंके त्यागरूप पंचभवत या दिग्विरति आदि सप्तशीलवत के धारक नहीं हैं, तथापि प्रथमानुयोगके ग्रन्थोंको देखनेसे मालूम होता है कि, ऐसे लोगोंका यह ( पूजनका ) अधिकार अर्वाचीन नहीं, बल्कि प्राचीन समयसे ही उनको प्राप्त है। जहाँ तहाँ जैनशास्त्रोंमें दिये हुए अनेक उदाहररणोसे इसकी भले प्रकार पुष्टि होती है । यथा - लंकाधीश महाराज रावरण परस्त्रीसेवनका त्यागी नही था, प्रत्युत वह परस्त्रीलम्पट विख्यात है । इसी दुर्वासनासे प्रेरित होकर ही उसने प्रसिद्ध सती सीता का हरण किया था । इस विषयमें उसकी जो कुछ भी प्रतिज्ञा थी वह एतावन्मात्र ( केवल इतनी ) थी कि, 'जो कोई भी परस्त्री मुझको नहीं इच्छेगी, मैं उससे बलात्कार नहीं करूंगा।' नही कह सकते उसने कितनी परस्त्रियोका - जो किसी भी कारण से उससे रजामद ( सहमत होगई हो - सतीत्वभग किया होगा अथवा उक्त प्रतिज्ञासे पूर्व कितनी परदाराश्रोंसे बलात्कार भी किया होगा । इस परस्त्रीसेवनके अतिरिक्त वह हिसादिक अन्य पापोका भी त्यागी नही था । दिग्विरति प्रादि सप्तशील व्रतोके पालनकी तो वहा बात ही कहाँ ? परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी, रविषेणाचार्यकृत पद्मपुराणमे अनेक स्थानोपर ऐसा वर्णन मिलता है कि - 'महाराजा रावणने बडी भक्तिपूर्वक श्रीजिनेद्रदेवका पूजन किया । रावणने अनेक जिनमंदिर बनवाये । वह राजधानीमे रहते हुए अपने राजमन्दिरोंके मध्यमे स्थित श्रीशातिनाथके सुविशाल चैत्यालय मे पूजन किया करता था । बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करनेके लिये बैठनेसे पूर्व तो उसने इस चैत्यालयमे बडे ही उत्सवके साथ पूजन किया था और अपनी समस्त प्रजाको पूजन करनेकी आज्ञा दी थी। सुदर्शन मेरु और कैलाश पर्वत श्रादिके जिनमन्दिरोका उसने पूजन किया और साक्षात् केवली भगवानका भी पूजन किया था।'
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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