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युगवीर - निबन्धावली
बाह्य-तपश्चरण एकान्तत शरीर-पीडनके सिवा और कुछ नही । ११० सद्ध्यानके प्रकाशसे प्राध्यात्मिक अन्धकार दूर होता है । १११ अपने दोषके मूल काररणको अपने ही समाधितेजसे भस्म किया जाता है ।
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११० समाधिकी सिद्धि के लिये बाह्य और ग्राभ्यन्तर दोनो प्रकारके परिग्रहोका त्याग आवश्यक है ।
११३ मोह- शत्रुको सद्दृष्टि, सवित्ति और उपेक्षारूप अस्त्रशस्त्रसे पराजित किया जाता है ।
११४ वस्तु ही अवस्तु हो जाती है, प्रक्रियाके बदल जाने अथवा विपरीत हो जानेसे ।
११५ कर्म कर्ताको छोडकर अन्यत्र नहीं रहता ।
११६ जो कर्मका कर्ता है वही उसके फलका भोक्ता है । ११७ अनेकान्त-शासन ही अशेष-धमका प्राश्रय-भूत और सर्व श्रापदाप्रका प्रणाशक होनेसे 'सर्वोदयतीर्थ' है ।
११८ जो शासन वाक्य धर्मोमे पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नही करता वह सब धर्मो शून्य एव विरोधका कारण होता है और वह कदापि 'सर्वोदयतीर्थ' नही हो सकता ।
११६ आत्यन्तिक-स्वास्थ्य ही जीवोका सच्चा स्वार्थ है, क्षरणभगुर भोग नही ।
१२० विभावपरिणति से रहित अपने अनन्तज्ञानादिस्वरूपमे शाश्वती स्थिति ही 'आत्यन्तिकस्वास्थ्य कहलाती है, जिसके लिये सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये ।