Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 468
________________ सर्वोदयके मूलसूत्र ૪૬ आत्मगुणोका परिचय, गुणोमे वर्द्धमान अनुराग और विकास मार्गकी दृढ श्रद्धा चाहिये | , २०. इसके लिये अपना हित एव विकास चाहनेवालोंको उन पूज्य महापुरुषो अथवा सिद्धात्मा की शरण मे जाना चाहिये जिनमें आत्मा गुरोका अधिकाधिक रूपमे या पूर्णरूपसे विकास हुआ हो, यही उनके लिये कल्याणका सुगम मार्ग है । २१. शरणमें जानेका आशय उपासना द्वारा उनके गुणोमें अनुराग बढ़ाना, उन्हें अपना मार्गप्रदर्शक मानकर उनके पद चिन्होपर चलना और उनकी शिक्षाप्रो पर अमल करना है । २२ सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्मानोकी भक्ति द्वारा आत्मोत्कर्ष साधनेका नाम ही 'भक्तियोग' है । २३ शुद्धात्मानोके गुरगोमे अनुरागको तदनुकूलवर्तनको तथा उनमे गुरणानुराग पूर्वक प्रादर-स- काररूप प्रवृत्तिको 'भक्त' कहते हैं । २४ पुण्यगुणोके स्मररणसे ग्रात्मामे पवित्रताका सचार होता है। २५ सदर्भात से प्रशस्त अध्यवसाय एव कुशल- परिणामोकी उपलब्धि और गुणावरोधक सचित- कर्मोकी निजरा होकर आत्माका विकास सधता है । २६ सच्ची उपासनासे उपासक उसी प्रकार उपास्य के समान हो जाता है जिस प्रकार कि तैलादिसे सुसज्जित बत्ता पूर्ण- तन्मयताके साथ दीपकका प्रालिंगन करने पर तद्र ूप हो जाती है । २७. जो भक्त लौकिक लाभ, यश, पूजा-प्रतिष्ठा, भय तथा रूढि आदिके वश की जाती है वह सद्भाक्त नही होती और न उससे आत्मोय-गुणोका विकास ही सिद्ध किया जा सकता है। २८ सर्वत्र लक्ष्य- शुद्ध एव भावशुद्धि पर दृष्टि रखनेकी ज़रूरत है, जिसका सबघ विवेकसे है २६. बिना विवेकके कोई भी क्रिया यथार्थ फलको नही फलती और न बिना विवेककी भक्ति ही सदर्भात कहलाती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485