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सर्वोदय के मूलसूत्र
भगवान् महावीरके तीर्थ शासनमे सर्वोदयके जिन मूल-सूत्रोका प्रतिपादन हुआ है वे संक्षेपमें इस प्रकार है
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१ सब जीव द्रव्य-दृष्टिसे परस्पर समान है ।
२ सब जीवोका वास्तविक गुण-स्वभाव एक ही है । ३ प्रत्येक जीव स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तः मुख और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियोका आधार अथवा पिड है ।
४ अनादिकालसे जीवोके साथ कर्ममल लगा हुआ है, जिसकी मूल प्रकृतियाँ आठ, उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ ग्रडतालीम और उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ प्रसख्य है ।
५ इस कर्ममलके कारण जीवोका असली स्वभाव प्राच्छादित है, उनकी वे शक्तियाँ अविकसित है और वे परतंत्र हुए नाना प्रकारकी पर्याये धारण करते हुए नज़र आते हैं ।
६ अनेक अवस्थाप्रोको लिये हुए ससारका जितना भी प्रारिपवर्ग है वह सब उसी कर्ममलका परिणाम है ।
७. कर्ममलके भेद से ही यह सब जीव जगत भेदरूप है । ८ जीवकी इस कर्ममलसे मलिनावस्थाको 'विभाव-परिणति' कहते हैं ।
६. जब तक किसी जीवकी यह विभावपरिणति बनी रहती है तब तक वह 'ससारी' कहलाता है । और तभी तक उसे ससारमे कर्मानुसार नाना प्रकार के रूप धारण करके परिभ्रमरण करना तथा