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महावीरका सर्वोदयतीर्थ
जे सतवाय-दोसे सक्कोलूया भरणति सखा । मखाय सव्वा तेसिं सच्चे वित सच्चा ॥ ५० ॥ ते उ भयरणोवणीया सम्म सरणमगुत्तर हॉति । ज भवदुक्खविमोक्ख दो विण पूति पाक्क् ि॥ ५१ ॥ 'साख्यो के सद्वादपक्षमे बोद्ध और वैशेषिक जन जो दोष देते है तथा बौद्धो और वैशेषिकों के प्रसद्वादपक्षमे साख्यजन जो दोष देते हैं वे सब सत्य है - सर्वथा एकान्तवादमे वैसे दोष आते ही है । ये दोनो सद्वाद और प्रसद्वाद दृष्टियाँ यदि एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हुए सयोजित हो जॉय समन्वयपूर्वक अनेकान्तदृष्टि परिणत हो नांय तो सर्वोत्तम सम्यग्दर्शन बनता है, क्योकि ये सत्-असत् रूप दोनो दृष्टियाँ अलग-अलग ससारके दु खोसे छुटकारा दिलानेमे समर्थ नही हैं - दोनोके सापेक्ष मयोगसे ही एक-दूसरे की कमी दूर होकर ससार के दुखोसे मुक्ति एवं शान्ति मिल सकती है ।"
इस सब कथन परसे मिथ्यादर्शनों और सम्यग्दर्शनोका तत्त्व सहज ही समझमे आ जाता है और यह मालूम हो जाता है कि कैसे सभी मिथ्यादर्शन मिलकर सम्यग्दर्शन के रूपमे परिणत हो जाते है । मिथ्यादर्शन प्रथवा जेनेतरदर्शन जब तक अपने अपने वक्तव्यके प्रतिपादनमे एकान्तताको अपनाकर पर विरोधका लक्ष्य रखते है तब तक सम्यग्दर्शनमे परिणत नही होते और जब पर- विरोधका लक्ष्य छोडकर पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए समन्वयकी दृष्टिको अपनाते हैं तभी सम्यग्दर्शनमे परिरगत हो जाते है, और 'जैनदर्शन' कहलाने के योग्य होते हैं। जैनदर्शन अपने अनेकान्तात्मक स्याद्वाद न्यायके द्वारा समन्वयको दृष्टिको लिये हुए है - समन्वय ही उसका नियामक तत्त्व है न कि विरोध, और इसलिये सभी मिथ्यादर्शन अपने-अपने विरोध को भुलाकर उसमे समा जाते है । इसीसे सन्मति सूत्रकी प्रतिम गाथा - मे जिनवचन - रूप जिनशासन अथवा जैनदर्शनकी मंगलकामना करते हुए उसे 'मिथ्यादर्शनोका समूहमय' बतलाया है, जो इस प्रकार है
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