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युगवीर-निबन्धावली
सो सावज किमावयह प्राणु किमिरि मर्माण होई 1
- सावमधम्मदोहा इन सब वाक्योका आशय क्रमसे इस प्रकार है --
(१) 'मन, वचन तथा कायसे किये जानेवाले धर्मका अनुष्ठान करनेके लिये सभी जीव अधिकारी हैं।' (यशस्तिलक)
(२) 'जिनेन्द्रका यह धर्म प्राय ऊंच और नीच दोनो ही प्रकारके मनुष्योंके आश्रित है। एक स्तम्भके आधार पर जैसे मन्दिर-मकान नही ठहरता उसी प्रकार ऊँच-नीचमेसे किसी एक ही प्रकारके मनुष्यसमूहके आधार पर धर्म ठहरा हुया नहीं है-वास्तवमे धर्म धार्मिकोके आश्रित होता है, भले ही उनमे ज्ञान, धन मान प्रतिष्ठा कुल-जाति, आज्ञा-ऐश्वर्य गरीर, बल, उत्पत्तिस्थान और आचार-विचाराादकी दृष्टि से कोई ऊंचा और कोई नीचा हो।' (यशस्तिलक)
(३) मद्य मासादिके त्यागरूप प्राचारको निर्दोषता, गृहपात्रादिकी पवित्रता और नि यस्नानादिके द्वारा शरीरकी शुद्धि, ये तीनों प्रवृत्तियाँ (विधियां ) शूद्रोको भी देव, द्विजाति और तपस्वियों (मुनियो) के परिकर्मोके योग्य बनाती हैं।' (नोतिवाक्यामृत)
(४) 'आसन और बर्तन आदि उपकरण जिसके शुद्ध हों, मद्यमासादिके त्यागसे जिसका आचरण पवित्र हो और नित्यस्नानादिके द्वारा जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शूद्र भी ब्राह्मरणादिक वर्गों के समान धर्मका पालन करनेके योग्य है, क्योकि जातिसे हीन आत्मा भी कालादिक लब्धिको पाकर धर्मका अधिकारी होता है।' (सागारधर्मामृत)
(५) 'इस (श्रावक ) धर्मका जो कोई भी आचरण-पालन करता है, चाहे वह ब्राह्मण हो या शूद्र, वह श्रावक है। श्रावकके सिर पर और क्या कोई मरिण होता है ? जिससे उसकी पहचान की जा सके।' (सावयधम्मदोहा)
नीच-से-नीच कहा जानेवाला मनुष्य भी जो इस धर्मप्रवर्तककी