________________
४३६
युगवार-निबन्धावलो करनेमे ही प्रधान कारण बने है । सर्वथा एकान्तशासन किस प्रकार दोषोसे परिपूर्ण हैं और वे कैसे दुखोंके विस्तारमे कारण बने हैं इस विषयकी चर्चाका यहाँ अवसर नहीं है । इसके लिये स्वामी समन्तभद्रके देवागम, युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र जैसे ग्रन्थों तथा अष्ट-सहस्री जैसी टीकाप्रोको और सिद्धसेन प्रकलकदेव, विद्यानन्द आदि महान् प्राचार्योंके तर्कप्रधान प्रन्योंको देखना चाहिये। । यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि जो तीर्थसासन-सर्वान्तवान् नही-सर्वधोंको लिये हुए और उनका समन्वय अपनेमें किये हुए नहीं है-वह सबका उदयकारक अथवा पूर्ण-उदयविधायक हो ही नहीं सकता और न सबके सब दुखोंकन अन्त करनेवाला ही बन सकता है, क्योंकि वस्तुतत्त्व अनेकान्तात्मक है-अनेकानेकगुणो-धर्मोको लिये हुए है । जो लोग उसके किसी एक ही गुण-धर्म पर दृष्टि डालकर उसे उसी एक रूपमें देखते और प्रतिपादन करते हैं उनकी दृष्टियां उन जम्मान्ध पुरुषोकी दृष्टियोंके समान एकागी हैं जो हाथीके एक-एक अगको पक्डकर-देखकर उसी एक-एक अगके रूपमें हाथीका प्रतिपादन करते थे, और इस तरह परस्परमे लडेते, झगडते, कलहका बीज बोते और एक दूसरेके दुःखका कारण बने हुए थे। उन्हे हाथीके सब अगो पर दृष्टि रखनेवाले सुनेत्र पुरुषने उनकी भूल सुमाई थी और यह कहते हुए उनका विरोध मिटाया था कि 'तुमने हाथीके एक-एक अगको ले रवखा है, तुम सब मिल जानो तो हाथी बन जाय-तुम्हारे अलग-अलग कथनके अनुरूप हाथी कोई चीज नहीं है। और इसलिये जो वस्तुके सब अगो पर दृष्टि डालता है उसे सब मोरसे देखता और उसके सब गुण-धर्मोको पहचानता है-वह वस्तुको पूर्ण तथा यथार्थ रूपमें देखता है, उसकी दृष्टि अनेकान्तदृष्टि है और यह अनेकान्तदृष्टि ही सती अथवा सम्यग्दृष्टि कहलाती है और यही संसारमें वर-विरोध