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युगवीर-नबन्धावली ही ठीक बैठ सकती है। अत आपका ही यह शासनतीर्थ सब दुःखोका अन्त करनेवाला है, यही निरन्त है-किमी भी सर्वथकान्तात्मक मिथ्यादर्शनके द्वारा खडनीय नही है--और यही सब प्राणियोके अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक ऐसा 'सर्वोदयतीर्थ है-- जो शासन सर्वथा एकान्तपक्षको लिये हुए हैं उनमेसे कोई भी सर्वोदयतीर्थ' पदके योग्य नहीं हो सकता।'
यहाँ 'मर्वोदयतीथ' यह पद मर्व, उदय और तीर्थ इन तीन शब्दोसे मिलकर बना है। 'मव' शब्द मब तथा पूर्णका वाचक है, 'उदय' ऊंचे-ऊपर उठने, उत्कर्ष प्राप्त करने, प्रकट होने अथवा विकासको कहते हैं, और 'तीथ' उसका नाम है जिसके निमित्तसे ससारमहामागरको तिरा जाय ' । वह तीर्थ वास्तवमें धर्मतीर्थ है जिसका सम्बन्ध जीवात्मासे है उसकी प्रवृत्तिमे निमित्तभूत जो
आगम अथवा प्राप्तवाक्य है वही यहाँ तीर्थ' शब्दके द्वारा परिग्रहीत है। और इसलिये इन तीनो दशब्दोके मामासिक योगसे बने हुए 'सर्वोदयतीथ' पदका फलितार्थ यह है कि-- जो आगमवाक्य जीवात्माके पूण उदय-उत्कर्ष अथवा विकाममे तथा मब जीवोके उदयउत्कर्ष अथवा विकाममे महायव है वह 'सर्वोदयतीथ' है। प्रात्माका उदय-उत्कष अथवा विकास उसके ज्ञान-दर्शन-मुखादिक स्वाभाविक गुणोका ही उदय उत्कष अथवा विकाम है। और गुरगोका वह उदयउत्कर्ष अथवा विकाम दोषोके अस्त-अपकष अथवा विनाशके बिना नही होता। अत सर्वोदयतीर्थ जहाँ ज्ञानादि गुणोके विकासमे सहा. यक है वहाँ अज्ञानादि दोषो तथा उनके कारण ज्ञानावरणादिक कर्मोंके विनाशमे भी सहायक है--वह उन सब रुकावटोको दूर करने. की व्यवस्था करता है जो किसीके विकासमे बाधा डालती हैं । यह
१ 'तरनि ममारमहार्णव येन निमित्तेन तत्तीर्थमिति' -विद्यानन्द