Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 449
________________ ४३२ युगवीर निबन्धावली दया दम त्याग-समाधि-निष्ठ, नय-प्रमाण-प्रकृताजसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलै प्रवादैनिन । त्वदीयं मनद्वितीयम् ॥६॥ इनसे अगली कारिकाप्रोमे सूत्ररूपसे वरिणत इस वीरशासनके मह वको और उसके द्वारा वीर-जिनेन्द्रकी महानताको स्पष्ट करके बतलाया गया है-खास तौरसे यह प्रदर्शित किया गया है कि वीर-जिन-द्वारा इस शासनमे वर्णित वस्तुतत्त्व कैसे नय-प्रमाणके द्वारा निर्बाध सिद्ध होता है और दूसरे सर्वथैकान्त-शासनोमे निर्दिष्ट हुआ वस्तुतत्त्व किस प्रकारसे प्रमारणबाधित तथा अपने अस्तित्वको ही सिद्ध करनेमे असमर्थ पाया जाता है। सारा विषय विज्ञ-पाठकोंके लिये बडा ही रोचक और वीरजिनेन्द्रकी कीतिको दिग्दिगन्तब्यापिनी बनानेवाला है। इसमें प्रधान-प्रधान दर्शनो और उनके अवान्तर कितने ही वादोका सूत्र अथवा संकेतादिके रूपमे बहुत कुछ निर्देश और विवेक आगया है। यह विषय ३९ वी कारिका तक चलता रहा है। इस कारिकाकी टीकाके अन्तमें 8 वीं शताब्दीके विद्वान श्रीविद्यानन्दाचार्यने वहां तकके वरिणत विषयकी संक्षेपमें सूचना करते हुए लिखा है - स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्यानि शेषत सम्प्राप्तस्य विशुद्धि-शक्ति-पदवी काष्ठां परामाश्रिताम् । निर्णीत मतमद्वितीयममल सक्षेपतोऽपाकृत तदुबाह्य वितथ मतं च सकल सद्धीधनबुध्यताम् ।। अर्थात्-यहाँ तकके इस युक्त्यनुशासनस्तोत्रमें शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको प्राप्त हुए वीर-जिनेन्द्र के अनेकान्तात्मक स्याद्वादमत (शासन ) को पूर्णत निर्दोष और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाह्य जो सर्वथा एकान्तके प्रायहको लिये हुए मिथ्यामतोंका समूह है उस सबका संक्षेपमें निराकरण किया गया है, यह गात सद्बुद्धिशालियोको भले प्रकार समझ लेनी चाहिये। इसके मागे, अन्यके उत्तरार्धमे, वीरशासन-वर्णित तत्वज्ञानके

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