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उपासना-तत्त्व
१८५ उपासनाको बकरीके गलेमें लटकते हुए स्तनोंसे अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। उसके द्वारा वर्षों क्या कोटि जन्ममे भी उपासनाके मूल उद्देश्यको सिद्धि नहीं हो सकती । और इसालये, यह जीव ससारमें दु खोका ही पात्र बना रहता है । दुःखोसे समुचित छुटकारा तभी हो सकता है जब कि परमात्माके गुणोंमे अनुराग बढाया जाय। परमात्माके गुणोमे अनुराग बढनेसे पापपरिणति सहजमे छूट जाती है और पुण्यपरिणति उसका स्थान ले लेती है। इसी प्राशयको म्वामी समन्तभद्राचार्यने, निम्न वाक्य द्वारा, बडे ही अच्छे ढगसे प्रतिपादित किया है -
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्न पुनाति चित्तं दुरिताऽञ्जनेभ्य ॥
-स्वय भूस्तोत्र इसमे स्वामी समन्तभद्र, परमात्माको लक्ष्य करके उनके प्रति, अपना यह आशय व्यक्त करते है कि 'हे भगवान्, पूजा-भक्तिसे प्रापका कोई प्रयोजन नही है, क्योकि आप वीतरागी ह-रागका अश भी आपके आत्मामे विद्यमान नही है जिसके कारण किसी पूजा-भक्तिसे आप प्रसन्न होते । इसी तरह निन्दासे भी आपका कोई प्रयोजन नहीं है कोई कितना ही आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उस पर आपको जरा भी क्षोभ नहीं आ सकता, क्योकि आपके प्रात्मासे वैरभाव, द्वेषाश, बिल्कुल निकल गया है-वह उसमे विद्यमान ही नहीं है -जिससे क्षोभ तथा अप्रसन्नतादि कार्योंका उद्भव हो सकता। ऐसी हालतमे निन्दा और स्तुति दोनो ही आपके लिये समान हैंउनसे आपका कुछ बनता या बिगडता नहीं है तो भी आपके पुण्य गुणोके स्मरणसे हमारा चित्त पापोसे पवित्र होता है- हमारी पापपरिणति छूटती है-इसलिये हम भक्तिके साथ आपका गुणानुवाद गाते हैं - अापकी उपासना करते हैं।'
जब परमात्माके गुरणोमे अनुराग बढाने, उनके गुणोका प्रेमपूर्वक