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युगवीर-निबन्धावली बघेरा, हाथी, घोडा, ऊट, गाय, बैल, मनुष्य, पशु, देव, और नारकी आदिक समस्त अवस्थाए उसी कर्ममलके परिणाम हैं और बीक्की इस अवस्थाको 'विभावपरिणति' कहते हैं।
जब तक जीवोमे यह विभावपरिणति बनी रहती है तब ही तक उनको 'ससारी' कहते हैं और तभी तक उनको ससारमे नाना प्रकारके रूप धारण करके परिभ्रमरण करना होता है। परन्तु जब किसी जीवकी यह विभावपरिगति मिट जाती है और उसका निजस्वभाव सर्वाङ्गरूपसे अथक्ष पूर्णतया विकसित हो जाता है तब वह जीव मुक्तिको प्राप्त हो जाता है, और इस प्रकार जीवके 'ससारी तथा 'मुक्त' ऐसे दो भेद कहे जाते हैं। ____ इस कथनसे स्पष्ट है कि जीवोका जो असली स्वभाव है वही उनका धर्म है, और उसी धर्मको प्राप्त करानेवाला जैनधर्म है। अथवा दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि जैनधर्म ही सब जीवोका निज धर्म है। इसलिये प्रत्येक जीवको जैनधर्मके धारण करनेका अधिकार प्राप्त है। इसीसे हमारे पूज्य तीर्थंकरो तथा ऋषि-मुनियोने पशु-पक्षियोत कको भी जैनधर्मका उपदेश दिया है और उनको जैनधर्म धारण कराया है, जिनके सैकडो ही नही किन्तु हजारो दृष्टान्त प्रथमानुयोगके शास्त्रो (कथाग्रन्थो) को देखनेसे मालूम हो सकते है ।
हमारे अतिम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामी जब अपने इस जन्मसे नौ जन्म पहले सिंहकी पर्यायमें थे तब उन्हे किसी वनमे एक महात्माके दर्शन करते ही जातिस्मरण हो पाया था । उन्होंने उसी समय, उक्त महात्माके उपदेशसे, श्रावकके बारह व्रत धारण किये, केसरीसिंह होकर भी किसी जीवको मारना और मास खाना छोड दिया और इस प्रकार जैनधर्मको पालते हुए सिंह-पर्यायको छोडकर वे प्रथम स्वर्गमें देव हुए और वहाँसे उन्नति करते करते अन्तमें जैनधर्मके प्रसादसे उन्होने तीर्थकर-पद प्राप्त किया।
पार्श्वनाथपुराणमे, अरविन्दमुनिके उपदेशसे, एक हाथोके जैन