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पुरुष-पापकी व्यवस्था कैसे?
३७३ उत्पादन पुण्य-पापका हेतु है' पूर्णतया सदोष है, और इसलिये उसे किसी तरह भो वस्तुतत्व नहीं कह सकते। ___अब दूसरे पक्षको दूषित ठहराते हुए प्राचार्यमहोदय लिखते
पुण्य ध्र वं स्वतो दुःखासा च सुखतो यदि ।
वीतरागो मुनिर्विरस्ताभ्या युज्यानिमित्ततः ॥६३|| 'यदि अपनेमे दुखोत्पादनसे पुण्यका और सुखोत्पादनसे पापका बन्ध ध्र व है-निश्चितरूपसे होता है ऐसा एकान्त माना जाय, तो फिर वीतराग (कषायरहित) और विद्वान् मुनिजन भी पुण्य-पापसे बँधने चाहिये, क्योकि ये भी अपने सुख-दुखको उत्पत्तिके निमित्तकारण होते हैं।'
भावार्थ--वीतराग और विद्वान् मुनिके त्रिकाल-योगादिके अनुष्ठान-द्वारा कायक्लेशादिरूप-दुःखकी और तत्त्वज्ञानजन्य-सतोषलक्षणरूप सुखकी उत्पत्ति होती है। जब अपनेमे दु ख-सुखके उत्पादनसे ही पुण्य-पाप बंधता है तो फिर ये अकषाय जोव पुण्य-पापके बन्धनसे कैसे मुक्त रह सकते हैं ? यदि इनके भी पुण्य-पापका घ्र व बन्ध होता है तो फिर पुण्य-पापके अभावको कभी अवसर नही मिल सकता, और न कोई मुक्त होनेके योग्य हो सकता है-पुण्यपापरूप दोनो बन्धोंके अभावके बिना मुक्ति होती ही नहीं। और मुक्तिके बिना बन्धनादिककी भी कोई व्यवस्था स्थिर नहीं रह सकतो, जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है । यदि पुण्य-पापके अभाव-बिना भी मुक्ति मानो जायगो ता ससूतिके-ससार अथवा सासारिक जीवनके प्रभावका प्रसंग आएगा, जो पुण्य-पापकी व्यवस्था माननेवालोमेंसे किसीको भी इष्ट नही है। ऐसी हालतमें प्रात्म-सुख-दुखके द्वारा पाप-पुण्यके बन्धनका यह एकान्त-सिद्धान्त भी सदोष है।
यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि अपनेमें दुख-सुखकी उत्पत्ति