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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ?
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हैं। उदाहरणके तौर पर किसी मुमुक्षुको मुनिदीक्षा देते हैं तो उसके अनेक सम्बन्धियोको दुख पहुँचता है। शिष्यो तथा जनताको शिक्षा देते हैं तो उससे उन लोगोको सुख मिलता है। पूर्ण सावघानीके साथ ईर्यापथ शोधकर चलते हुए भी कभी कभी दृष्टिपथसे बाहरका कोई जीव अचानक कूदकर पैर तले आ जाता है और उनके उस पैरसे दबकर मर जाता है । कायोत्सर्गपूर्वक ध्यानावस्थामें स्थित होने पर भी यदि कोई जीव तेज़ीसे उडा चला ग्राकर उनके शरीरसे टकरा जाता है और मर जाता है तो इस तरह भी उस जीवके मार्गमे बाधक होनेसे वे उसके दुखके कारण बनते हैं । अनेक निर्जितकषाय ऋद्धिधारी वीतरागी साधुप्रोके शरीर के स्पर्शमात्र से अथवा उनके शरीरको स्पर्श की हुई वायुके लगनेसे ही रोगीजन नीरोग होजाते है और यथेष्ट सुखका अनुभव करते हैं । ऐसे और भी बहुतसे प्रकार है जिनमे वे दूसरोके सुख-दुखके कारण बनते हैं । यदि दूसरोके सुख-दुखका निमित्त कारण बननेसे ही आत्मामें पुण्य पापका प्रास्रव-बन्ध होता है तो फिर ऐसी हालतमें
कषाय-रहित साधु से पुण्य-पापके बन्धनसे बच सकते हैं ? यदि वे भी पुण्य-पापके बन्धनमे पडते हैं तो फिर निर्बन्ध अथवा मोक्षकी कोई व्यवस्था नही बन सकती, क्योकि बन्धका मूलकारण कषाय है । कहा भी है
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" कषायमूल सकल हि बन्धनम् "सकषायत्वाज्जीव. कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्ध. और इसलिये प्रकषायभाव मोक्षका काररण है। जब' प्रकषायभाव मी बन्धका कारण हो गया तब मोक्षके लिए कोई कारण नहीं रहता । काररणके अभावमें कार्यका प्रभाव हो जानेसे मोक्षका प्रभाव ठहरता है । और मोक्षके प्रभावमे बन्धकी भी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योकि बन्ध और मोक्ष जैसे सप्रतिपक्ष धर्म परस्परमें अविनाभाव सम्बन्धको लिये होते हैं--एकके बिना दूसरेका अस्तित्व
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