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युगवीर-निबन्धावली बन नही सक्ता, यह बात इस स्तम्भके प्रथम निबन्धमे भले प्रकार स्पष्ट की जा चुकी है । जब बन्धकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तब पुण्य-पापके बन्धकी क्था ही प्रलापमात्र हो जाती है । अतः चेतन-प्राणियोकी दृष्टिसे भी पुण्य-पापकी उक्त एकान्त व्यवस्था सदोष है।
यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि उन अकषाय जीवोके दूसरोको सुख-दुख पहचानेका कोई सकल्प या अभिप्राय नही होता. उस प्रकारकी कोई इच्छा नहीं होती और न उस विषयमे उनकी कोई मासक्ति ही होती है, इसलिये दूसरोंके सुख-दुखकी उत्पत्तिमे निमित्तकारण होनेसे वे बन्धको प्राप्त नहीं होते,तो फिर दूसरोंमे दुःखोल्पादन पापका और सुखोत्पादन पुण्यका हेतु है, यह एकान्तसिद्धान्त कैसे बन सकता है ?- अभिप्रायाभावके कारण अन्यत्र भी दुखोत्पादनसे पापका और सुखोत्पादनसे पुण्यका बन्ध नहीं हो सकेगा, प्रत्युत इसके विरोधी अभिप्रायके कारण दुखोत्पत्तिसे पुण्यका और सुखोत्पत्तिसे पापका बन्ध भी हो सकेगा। जैसे एक डाक्टर सुख पहुंचानेके अभिप्रायसे पूरी सावधानीके साथ फोडेका ऑपरेशन करता है परन्तु फोडेको चीरते समय रोगीको कुछ अनिवार्य दुख भी पहुँचता है, इस दुरूके पहुँचानेसे डाक्टरको पापका बन्ध नहीं होगा इतना ही नहीं, बल्कि उसकी दुखविरोधिनी भावनाके कारण यह दुख भी पुण्य-बन्धका कारण होगा। इसी तरह एक मनुष्य कषायभावके वशवर्ती होकर दुख पहुँचानेके अभिप्रायसे क्सिी कुबडेको लात मारता है, लातके लगते ही अचानक उसका कुबड़ापन मिट जाता है और वह सुरुका अनुभव करने लगता है, कहावत भी है--"कुबडे गुरण लात लग गई"-तो कुबडेके इस सुखानुभवसे लात मारनेवालेको पुण्यफलकी प्राप्ति नहीं हो सकती --उसे तो अपनी सखविरोधिनी भावनाके कारण पाप ही लगेगा। प्रत प्रथमपक्षवालोका यह एकान्त सिद्धान्त कि 'परमें सुख-दुखका