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पुण्य-पापको व्यवस्था कैसे ?
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भी युक्त प्रालयका बन्धव्यवस्थापक साम्परायिक प्रास्लवकाहेतु नहीं है । ( बन्धाऽभावके कारण) वह व्यर्थ होता है उसका कोई फल नहीं ।
यहाँ 'सक्लेश' का अभिप्राय प्रात-रौद्रध्यानके परिणामसे है'आते-रौद्रव्यानपरिणाम सक्लेश' ऐसा अकलंकदेवने 'अष्टशती' टीकामें स्पष्ट लिखा है और श्रीविद्यानन्दने भी उसे 'अष्टसहली' में अपनाया है। 'सक्लेश' शब्दके साथ प्रतिपक्षरूपसे प्रयुक्त होनेके कारण 'विशुद्धि' शब्दका अभिप्राय 'सक्लेशाऽभाव' है ('तदभाव विशुद्धि' इत्यकलक )-उस क्षायिकलक्षरणा तथा प्रविनश्वरी परमशुद्धिका अभिप्राय नही है जो निरवशेष-रागादिके अभावरूप होती है । उस विशुद्धिमे तो पुण्य-पापबधके लिये कोई स्थान ही नहीं है । और इसलिये विशुद्धिका आशय यहाँ आर्त-रौद्रध्यानसे रहित शुभपरिणतिका है । वह परिणति धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानके स्वभावको लिये हुए होती है । ऐमी परिणतिके होने पर ही प्रात्मा स्वात्मामे-स्वस्वरूपमे स्थितिको प्राप्त होता है, चाहे वह कितने ही अशोमे क्यो न हो । इसीसे अकलकदेवने अपनी व्याख्यामे, इस सक्लेशाभावरूप विशुद्धिको 'आत्मन स्वात्मन्यवस्थानम' रूपसे उल्लिखित किया है । और इससे यह नतीजा निकलता है कि उक्त पुण्य-प्रसाधिका विशुद्धि आत्माके विकासमे सहायक होती है, जब कि सक्लेशपरतिमे प्रात्माका विकास नही बन सकता--वह पाप-प्रसाधिका होनेसे प्रात्माके अध पतनका कारण बनती है । इसीलिये पुण्यको प्रशस्त और पापको अप्रशस्त कर्म कहा गया है।
विशुद्धिके कारण, विशुद्धिके कार्य और विशुद्धिके स्वभावको 'विशुद्धिनग' कहते हैं। इसी तरह संक्लेशके कारण, सक्लेशके कार्य तथा स्वभावको 'सक्लेशाङ्ग' कहते हैं । स्व-पर-सुख-दुख याद विशु. डिबंगको लिये हुए होता है तो वह पुण्य-रूप शुभ-बन्धका और