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परिग्रहका प्रायश्चित
३८३ बहुत ही कठिन, गुरुतर-कष्टसाध्य तथा असख्य वर्षाका कार्य हो जाता है । और इसलिए वे ही मनुष्य विवेकी हैं, वे ही बुद्धिमान हैं और वे ही आत्महितैषी एव धर्मात्मा हैं जो इस भूल तथा प्रात्मवचनाके चक्करमें न पड़कर अनासक्तिके द्वारा परिग्रहका अधिकभार अपने आत्मा पर पडने नहीं देते, और प्रायश्चित्तादिके द्वारा बराबर उसकी काट-छाट करके अपने आत्माको सदैव हलका रखते हैं। ___अब देखना यह है कि परिग्रहका प्रायश्चित्त क्या है ? परिग्रहका समुचित प्रायश्चित्त अनासक्तिके साथ साथ उसका त्याग है, जो ग्रहणकी विपरीत दिशाको लिए हुए होनेसे यथार्थ जान पड़ता है। शीतका प्रतिकार जिस प्रकार उष्णसे और उष्णका प्रतिकार शीतसे होता है, उसी प्रकार ग्रहणरूप परिग्रहका प्रतिकार उसके त्यागसे ही ठीक बनता है । प्रायश्चित्तके दस अथवा नव भेदोमे 'त्याग' नामका भी एक प्रायश्चित्त है, जिसे 'विवेक' भी कहते हैं । त्यागका दूसरा नाम 'दान' है,और इसलिए परिग्रहसे मोह हटाकर अथवा अपनी धन-सम्पत्तिसे ममत्वपरिणामको दूर करके लोक-सेवाके कामोमे उसका वितरण करना-दे डालना, यह परिग्रहका समुचित प्रायश्चित्त है । परन्तु यह दान अथवा त्याग ख्याति-लाभ-पूजादिककी दृष्टिसे न होना चाहिये और न इसमें दूसरो पर अनुग्रह और कृपाकी कोई अहभावना ही रहनी चाहिये । जो दान ख्याति-लाम-पूजादिककी दृष्टिसे दिया जाता है अथवा जिसमें दूसरो पर अनुग्रह और कृपाकी अहभावना रहती है वह प्रायश्चित्तकी कोटिमे नहीं आतावह दूसरे प्रकारका साधारण दान है । प्रायश्चित्तकी दृष्टि तो अपने पापका संशोधन अथवा अपराधका परिमार्जन करके प्रात्मशुद्धि १ आलोचना प्रतिक्रान्तिय त्यागो विसर्जन ।
तप छेदोऽपि मूल च परिहारोऽभिरोचनम् ।। (प्रायश्चित्तसमु०१८५) "आलोचन-प्रतिक्रमण-तदुभय-
विक-व्युत्सर्ग."(तत्त्वार्थसूत्र ६-२०)