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युगवीर-निबन्धावली करनेकी अोर होती है। और इसलिए उसका करनेवाला दान करके किसी पर कोई अहसान-अनुग्रह नही बतलाता और न उससे अपना कोई लौकिक लाभ ही लेना चाहता है । वह तो समझता है कि-मैंने अपनी जरूरतसे अधिक परिग्रहका सचय करके दूसरोको उसके भोग-उपभोगसे वचित रखनेका अपराध किया है, उसके अर्जन वर्द्धन-रक्षरणादिमें मुझे कितने ही पाप करने पडे हैं, उसका निरर्गल बढते रहना पापका-पात्माके पतनका कारण है।' और इसलिये वह विवेकको अपनाकर तथा ममत्वको घटाकर अपनेको पापभारसे हलका रखनेकी दृष्टिसे उसका लोक-हितार्थ त्याग करता हैदान करता है। दानके इन दोनो प्रकारोमें परस्पर कितना बड़ा अन्तर है, इसे सहृदय पाठक स्वय समझ सकते है।
नि सन्देह, परिग्रहमे पापबुद्धिका होना, उसके प्रायश्चित्तकी बराबर भावना रखना और समय-समयपर उसे करते रहना विवेकका-अनासक्तिका सूचक है और साथ ही आत्माकी जागृतिकाउत्थानका द्योतक है। यदि समाजमे दानके पीछे प्रायश्चित्त-जैसी सद्भावनाएं काम करने लगे तो उसका शीघ्र ही उत्थान हो सकता है और वह ठीक अर्थमे सचमुच ही एक आदर्श धार्मिक-समाज बन सकता है। सद्गृहस्थोकी नित्य-नियमसे की जानेवाली देवपूजादि षट् आवश्यक क्रियायोमे जो दानका विधान (समावेश) किया गया है उसका आशय सभवत यही जान पड़ता है कि नित्यके प्रारम्भपरिग्रह-जनित पापका नित्य ही थोडा-बहुत प्रायश्चित्त होता रहे जिससे पापका बोझा अधिक बढने न पावे और गृहस्थजन निराकुलता-पूर्वक धर्मका साधन कर सकें-उसमे बाधा न आवे ।
हार्दिक भावना है कि देश तथा समाजमें बहुलतासे ऐसे आदर्श त्यागी एव दानी पैदा हो, जो परिग्रहको पाप समझते हुए उसमें मासक्ति न रखते हो और प्रायश्चित्तके रूपमें अपनी धन-सम्पत्तिका सदा लोकसेवाके कार्योंमें समुचित विनियोग करते रहें।