________________
युगवीर-निबन्धावली विचार-समाधिको भग करते हुए बोल उठे____ इसमें अधिक सोचने-विचारनेकी बात क्या है ? एक ही चीजको छोटी-बडी दोनो कहनेमे विरोध तो तब पाता है जब जिस दृष्टि अथवा अपेक्षासे किसी चीज़ को छोटा कहा जाय उसी दृष्टि अथवा अपेक्षासे उसे बडा बतलाया जाय । तुमने मध्यकी तीन-इची लाइनको ऊपरको पाँच-इची लाइनसे छोटी बतलाया है, यदि पाँचइंचवाली लाइनकी अपेक्षा ही उसे बडी बतला देते तो विरोघ पा जाता, परन्तु तुमने ऐसा न करके उसे नीचेकी एक इच-वाली लाइनसे ही बडा बतलाया है, फिर विरोधका क्या काम ? विरोध वही आता है जहाँ एक ही दृष्टि (अपेक्षा) को लेकर विभिन्न प्रकारके कथन किए जायँ, जहाँ विभिन्न प्रकारके कथनोके लिये विभिन्न दृष्टियो-अपेक्षायोका आश्रय लिया जाय वहाँ विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं रहता। एक ही मनुप्य अपने पिताकी दृप्टिसे पुत्र है और अपने पुत्रकी दृष्टिसे पिता है--उसमे पुत्रपन और पितापनके दोनो धर्म एक साथ रहते हुए भी जिस प्रकार दृप्टिभेद होनेसे विरोधको प्राप्त नही होते उसी प्रकार एक दृष्टिसे विसी वस्तका विधान करने और दूसरी दृष्टिसे निषेध करने अथवा एक अपेक्षासे 'हाँ' और दूसरी अपेक्षासे 'ना' करनेमे भी विरोधकी कोई बात नही है । ऐसे ऊपरी अथवा शब्दोमे ही दिखाई पडनेवाले विरोधको 'विरोधाभास' कहते है-वह वास्तविक अथवा अर्थकी दृष्टिसे विरोध नहीं होता, और इसलिये पूर्वापरविरोध तथा प्रकाशअन्धकार-जैसे विरोधके साथ उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती । और इसीलिये तुमने जो बात कही वह ठीक है । तुम्हारे कथनमे दृढता लानेके लिए ही मुझे यह सब स्पष्टीकरण करना पड़ा है। आशा है अब तुम छोटे-बडेके तत्त्वको खूब समझ गये होगे।
बिद्यार्थी-हां, खूब समझ गया, अब नही भूलूगा। अध्यापक - अच्छा, तो इतना और बतलाओ-'इन ऊपर