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युगबीर-निबन्धावली भोजन मिल पाता है। प्रत्यत इसके, धनीगम नामके एक पाचवें मेठ है, जो ३-४ लाख रुपयेकी सम्पत्तिके ही मालिक हैं। उनका भी हृदय बगालके अकाल-पीडितोको देग्वकर वाम्नवमे द्रवीभूत हुआ है, उन्होने भी मानवीय कर्तव्य ममभकर स्वेच्छामे बिना किसी लौकिक लाभको तश्यमे रक्खे दो लाखका दान दिया है और उससे अपनी एक भोजनगाला खुलवाई है। साथ ही भोजनशालाकी ऐसी विधि-व्यवस्था की है, जिसन व भोजन-पात्र गरीब भुखमरे ही भोजन पा सके, जिनको लक्ष्य करके भोजनगाला खोली गई है । उसने भोजनशालाका प्रबन्ध अपने दो योग्य पुत्रोवे मुपद कर दिया है, जिनकी सुव्यवस्थामे कोई मडा-ममडा अथवा प्रपात्र व्यक्ति भोजनशालाके अहातेके अन्दर घुसन भी नहीं पाता, जिसके जो योग्य है वही मान्विक भोजन उसे दिया जाता है और उन दीन-अनाथो तथा विधवा-अपाहिजोको उनके घर पर भी भोजन पहुँचाया जाता है जो लज्जाके मारे भोजनगालाके द्वार तक नहीं आ सकते और इसलिये जिन्हे भोजनके अभावमे घर पर ही पडे पडे मर जाना मजूर है। अब बतलायो इन दोनो मठोमे कौन बडा दानी है ? वही चौथे नम्बरवाला सेठ क्या बडा दानी है जिसे तुमने अभी बहुतोकी तुलनामे बडा बतलाया है । अथवा पाचव नम्बरका यह मेठ धनीराम बडा दानी है ? कारण-सहित प्रकट करो।
विद्यार्थी उत्तर के लिए कुछ साचने ही लगा था कि इतनेमे अध्यापकजी बोल पडे-'इसमे तो मोचनेकी जरा भी बात नहीं है। यह स्पष्ट है कि चौथे नम्बरवाले सेठकी पोजीशन बडी है, उसकी माली हालत सेठ धनीरामसे बहुत बढी चढी है, फिर भी धनीरामने उसके बराबर ही दो लाखका दान दिया है, दीन-दुखियोकी पुकारके मुकाबलेमे अधिक धन मचित कर रखना उसे अनुचित जंचा है
और उसने थोडी सम्पत्तिमे ही सन्तोष धारण करके उसीसे अपना निर्वाह कर लेना इस बिषम परिस्थितिमे उचित समझा है । अत