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भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झडा और कर्तव्य
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थे और उनकी सारे देशमें एक बाढ सी प्रागई थी। जहाँ कही भी किमी खास स्थान पर समूह के मध्य में झडेको लहरानेकी रस्म प्रदा की गई वहाँ हिन्दू, मुसलमान, सिख जैन, पारसी और ईसाई प्रादि सभी मिलकर बिना किसी मेद-भावके झडेका गुरणगान किया, उसे सिर झुकाकर प्रणाम किया और सलामी दी।
उस वक्ता यह सार्वजनिक और सार्वभौमिक मूर्तिपूजाका दृश्य बड़ा ही सुन्दर जान पडता था । और हृदयमें रह-रहकर ये विचार तराङ्गत हो रहे थे कि जो लोग मूर्तिपूजाके सर्वथा विरोधी हैं उसमें कृत्रिमता और जडता जैसे दोष देकर उसका निषेध किया करते हैं - वे समय पर इस बातको भूल जाते हैं कि 'हम भी किसी न किसी रूप में मूर्तिपूजक हैं, क्योकि राष्ट्रका झडा भी, जिसकी वे उपासना करते हैं, एक प्रकारकी जड़मूर्ति है और राष्ट्रके प्रतिनिधि नेता द्वारा निर्मित होनेसे कृत्रिम भी है ।
परन्तु देवमूर्ति जिस प्रकार कुछ भावोकी प्रतीक होती है, जिनकी उसमे प्रतिष्ठा की जाती है, उसी प्रकार यह राष्ट्रपताका भी उन राष्ट्राय भावनाओ की प्रतीक है जिनकी कुछ रङ्गो तथा चिन्हो प्रादिके द्वारा इसमे प्रतिष्ठा की गई है, और इसीसे देवमूर्तिके अपमानकी तरह इस प्रतिष्ठित राष्ट्रमूर्ति के अपमानको भी इसका कोई उपासक सहन नही कर सकता। इसी बात को लेकर 'भडेको सदा ऊँचा रखने और प्रारण देकर भी उसकी प्रतिष्ठाको बराबर कायम रखनेकी' सामूहिक तथा व्यक्तिगत प्रतिज्ञाएँ कराई गई थी । प्रत
डेकी पूजा-वन्दना करनेवालोको भूलकर भी मूर्तिपूजाका सर्वथा विरोध नहीं करना चाहिये- वैसा करके वे अपना विरोध प्राप घटित करेंगे ।
उन्हें दूसरों की भावना को भी समझना चाहिये और अनुचित प्राक्षेपादिके द्वारा किसीके भी मर्मको नहीं दुखाना चाहिये, बल्कि राष्ट्रीय झडेकी इस सामूहिक वन्दनासे पदार्थ- पाठ लेकर सबके साथ