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भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झडा और कर्त्तव्य ४२६ परन्तु इस गृह-कलहके,जिसके विष-बीज विदेशियोने चिरकालसे बो रक्खे हैं, दूर हुए बिना कुछ भी नहीं हो सकता। इसके लिये अन्तरङ्ग शत्रुप्रोसे युद्ध करके उनका नाश करना होगा । जब तक अन्तरङ्ग शत्रुप्रोका नाश नहीं होगा तब तक भारतको सच्ची स्वाधीनताकी प्राप्ति नही कही जा सकती और न उसे सुख-शान्तिकी प्राप्ति ही हो सकती है। परन्तु इन शत्रुप्रोका नाश उनके मारनेसे नहीं होगा बल्कि उनकी शत्रुताको मारनेसे होगा, जिसके लिये देशमें परस्पर प्रेम, सद्भाव और विश्वासकी भावनाप्रोके प्रचारकी और उसके द्वारा विद्वेषके उस विषको निकाल देनेकी अत्यन्त आवश्यकता है जो अधिकाश व्यक्तियोकी रगोमे समाया हुआ है। इसीके लिये नेतामोको जनताका सहयोग वाञ्छनीय है। वे चाहते हैं कि जनता प्रतिहिंसा अथवा बदलेकी भावनासे प्रेरित होकर कोई काम न करे और दहादिके कानूनको अपने हाथमे न लेवे । उसे प्रातताइयोसे अपनी जान और मालकी रक्षाका खुला अधिकार प्राप्त है और उस अधिकारको अमलमे लाते हुए, जरूरत पड़ने पर, वह आतताइयोकी जान भी ले सकती है, परन्तु किसी आततायीके अन्याय-अत्याचारका बदला उसकी जातिके निरपराध व्यक्तियो-बालबच्चो तथा स्त्रियो आदिको मारकर चुकाना उन्हें किसी तरह भी सहन नही हो सकता । बदलेकी ऐसो कार्रवाइयोसे शत्रुताकी आग उत्तरोत्तर बढती है, नेताओका कार्य कठिनसे कठिनतम हो जाता है और कभी शान्ति तथा सुव्यवस्था नही होपाती। बदलेकी ऐसी कार्रवाई करनेवाले एक प्रकारसे अपने ही दूसरे माझ्योकी हत्या और मुसीबतके कारण बनते हैं।
अतभारतकी स्वतन्त्रताको स्थिर-सुरक्षित रखने और उसके भविष्यको समुज्वल बनानेके लिये इस समय जनता तथा भारतहितैषियोका यह मुख्य कर्तव्य है कि वे अपने नेताओंको उनके कार्योंमें पूर्ण सहयोग प्रदान करें और ऐसा कोई भी कार्य न करे जिस