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युगवीर - निबन्धावली
विरोधको जरा भी अवकाश नही मिलता, जैसे 'तीन-इची लाइन पाँच - इची लाइनकी अपेक्षा छोटी ही है और एक-इची लाइनकी अपेक्षा बडी ही है' इस कहने मे विरोधकी कोई बात नही है । विरोध ता है जहाँ छोटापन और बडापन जैसे सापेक्ष धर्मों अथवा गुणोको निरपेक्षरूपसे कथन किया जाता है । मैं समझता हूँ अब तुम इस विरोध- अविरोधके तत्त्वको भी अच्छी तरह से समझ गये
होगे ?'
विद्यार्थी - हाँ, श्रापने खूब समझा दिया है और मै अच्छी तरह समझ गया हूँ ।
अध्यापक --- अच्छा, अब मै एक बात और पूछता हूँ-कल तुम्हारी कक्षामे जिनदास नामके एक स्याद्वादी - स्याद्वादन्याय के अनुयायी - आए थे और उन्होने मोहन लडके को देखकर तथा उसके विषय मे कुछ पूछ-ताछ करके कहा था 'यह तो छोटा है' । उन्होंने यह नही कहा कि 'यह छोटा ही है' यह भी नही कहा कि 'वह सर्वथा छोटा है और न यही कहा कि वह 'अमुककी अपेक्षा अथवा अमुक विषयमे छोटा है', तो बतलाम्रो उनके इस कथन में "क्या कोई दोष आता है ? और यदि नही आता तो क्यो नही ?
इस प्रश्नको सुनकर विद्यार्थी कुछ चक्करसेमे पड गया और मन-ही-मन उत्तरको खोज करने लगा। जब उसे कई मिनट हो गये तो अध्यापकजी बोल उठे
'तुम ता बडा साचमे पड गये । इस प्रश्नपर इतने सोच-विचारका क्या काम । यह तो स्पष्ट ही है कि जिनदास स्याद्वादी है, उन्होने स्वतत्ररूपसे ही' तथा 'सर्वथा' शब्दोंका साथमे प्रयोग भी नही किया है, और इसलिये उनका कथन प्रकट रूपमे 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका साथमे न लेते हुए भी 'स्यात्' शब्दसे अनुशासित है-किसी अपेक्षा- विशेषका लिये हुए है । किसीसे किसी प्रकारका छोटापन उन्हे विर्वाक्षत था, इससे यह जानते हुए भी कि मोहन अनकोसे