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युगवीर-निबन्धावलो इसीसे परमागममे बहुप्रारम्भी- बहुपरिग्रहीको नरकका अधिकारी बतलाया है, क्योकि बहुभारम्भ (प्राणिपीडा-हेतु-व्यापार ) और बहपरिग्रह दोनो ही सिद्धान्तमें नरकायुके प्रास्रवके कारण कहे गये हैं। ऐसी हालतमे परिग्रहको पाप न मान कर उसका प्रायश्चित्त न करना और उसे भविष्यकी ओरसे प्रांखे बन्द करके बराबर बढाते रहना, नि सन्देह, बडी भारी भूल है-प्रात्म-वचना है। इस भूलके वश परिग्रह-पापकी पोट बढते बढते मनुष्यको घोर श्वभ्रसागर अथवा दुखसागरमें ले डूबती है, जहाँसे उद्धार पाना फिर
१ इस विषयमे पुरातन आचार्योक निम्न वाक्य भी ध्यानमे रखने योग्य हैं, जिनसे इस विषयकी कितनी ही पुष्टि होती है -
" के पुनस्ते सर्व दोषानुषङ्गा ? ममेदमिति हि मति मकल्पे स रक्षणादय सजायन्ते । तत्र च हिमाऽवश्य भाविनी,तदर्थमतृत जन्पति, चौर्य चाचरति, मैथुने च कर्मणि प्रयतते । तत्तत्प्रभवा नरकादिषु दुःखप्रकारा । इहाऽपि अनुपरतव्यसनमहार्णवाऽवगाहनम् ।”
-राजवार्तिक-भाष्ये, अकलक "परिग्रहवता सता भयमवश्यमापद्यते, प्रकोप-परिहिसने च परुषाऽनृत-व्याहृती। ममन्वमथ चोरता स्वमनसश्च विभ्रान्तता, कुतो हि कलुषात्मना परमशुक्ल-मध्यानता॥४२॥-पात्रसरिस्तोत्र "बबारम्भ परिग्रहत्व नारकस्यायुष." (तत्त्वार्थसूत्र ६-१५) 'एतदुक्त भवति-परिग्रहप्रणिधानप्रयुक्ता तीव्रतरपरिणामा हिसापरा बहुशो विज्ञप्ताश्चानुमता भाविताश्च तत्कृतकर्मात्मसात्करणात् तप्ताय पिण्डवत् अहितक्रोधाद्या नारकस्यायुष
पासव इति सक्षेप । तद्विस्तरस्तु". ।" (राजवातिक-भाष्य) ''प्रारम्भो जन्तुपातश्च कषायश्च परिग्रहात् । जायन्तेन ततः पात: प्राणिनां श्वभ्रसागरे ।" (मानार्णव)