________________
३५०
युगवीर - निबन्धावली
देखा जाता, सभी उसकी चकाचौंध मे फंसे हैं, सभी उसके इच्छुक हैं और सभी अधिकाधिक रूपसे परिग्रहधारी बनना चाहते हैं । ऐसे अपरिग्रही सच्चे साधु भी प्राथ नही हैं जो अपने श्राचरण-बल और सातिशय-वारणी से अपरिग्रह के महत्वको लोक- हृदयोपर भले प्रकार
कित कर सकते - उन्हे उनकी भूल सुझा सकते, परिग्रहसे उनकी लालसा, गृद्धता एव श्रासक्तताको हटा सकते, अनासक्त रहकर उसके उपभोग करने तथा लोकहितार्थ वितरण करते रहनेका सच्चा सजीव पाठ पढा सकते। कितने ही साधु तो स्वय महापरिग्रह के घारी हैं - मठाधीश, महन्त भट्टारक बने हुए हैं, और बहुतसे परिग्रहभक्त सेठ साहूकारोकी केवल हाँ में हाँ मिलानेवाले है, उनकी कृपाके भिखारी हैं, उनकी प्रसत् प्रवृत्तियोको देखते हुए भी सदैव उनको प्रशसा के गीत गाया करते हैं- उनकी लक्ष्मी, विभूति एव परिग्रहकी कोरी सराहना किया करते हैं । उनमें इतना आत्मबल नही, आत्मतेज नही, हिम्मत नही, जो ऐसे महापरिग्रही धनिकोकी आलोचना कर सकें- उनकी त्याग शून्य निरर्गल धन-दौलतके
ग्रह की प्रवृत्तिको पाप या अपराध बतलासके । इस प्रकार जब सभी परिग्रहकी कीचमे थोडे बहुत घंसे हुए या सने हुए हैं तब फिर कौन किसीकी तरफ गुली उठावे और उसे अपराधी - पापी ठहरावे ? ऐसी हालत में परिग्रहको श्रामतौर पर यदि पाप नही समझा जाता और न अपराध ही माना जाता है तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नही है ।
परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी परिग्रह पापकी — अपराधकी - कोटिसे निकल नही जाता । उसे पाप या अपराध न मानना अथवा तद्रूप न देखना दृष्टिविकारका ही एकमात्र परिणाम जान पड़ता है । धतूरा खाकर दृष्टिविकारको प्राप्त हुना मनुष्य अथवा पीलिया रोगका रोगी यदि सफेद शखको भी पीला देखता है तो उससे वह शख पीला नही हो जाता और न उसका शुक्ल गुरण ही नष्ट हो जाता है । अथवा ठगोका समाज यदि झूठ बोलने और